Uttarakhandजन संवाद

धन वसूली के धंधे में तब्दील होती सेवा भावना

जहाँ एक और डॉक्टर्स और उनके सहयोगी स्टाफ की सेवाओं की जनता खुले दिल से प्रशंसा कर ईश्वर से उनके लिये दुआ मांग रही है वही ऐसे लोगो की कमी नही है जो इस पूरे व्यवसाय की लूट से त्रस्त होकर बद दुआएं देने में कमी नही कर रहे हैं। व्यवसाय की इस प्रतिस्पर्धा में विभिन्न इलाज पद्धति के विशेषज्ञ भी कूद पड़े है और एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नही छोड़ रहे है। कुल मिलाकर जनता त्राहि त्राहि कर रही है। उसकी सुध लेने वाला और हमदर्दी करने वाला नजर नही आता। सरकार सब कुछ जानते हुए भी बेबस और लाचार है। विश्व मे चुनी हुई सरकारों का नही मेडिकल लॉबी का सामराज्य है। बड़े से बड़ी सरकार इनके सामने बोनी है।
       आखिर क्या है समस्याए और क्या हो सकता है इनका जनहित में समाधान। आइये एक चर्चा कुछ बिंदुओं पर कर लेते हैं।
सबसे पहले बात करते है डॉक्टर्स की। सरकार एक डॉक्टर को तैयार करने में करोड़ो रूपये खर्च करती है यही डॉक्टर्स जब सेवा का अवसर आता है तो अपनी सुविधा ढूंढने लगते है। कोई भी डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रो की सेवा नही करना चाहता। सरकार की सेवा करने वाले भी अधिकतर डॉक्टर निजी प्रैक्टिस करते है जिसके कारण हॉस्पिटल में फ्री सेवा पाने वाले रोगी को उनकी निजी शरण मे जाना पड़ता है। कुछ डॉक्टर्स दूसरे निजी हॉस्पिटल के साथ करार पर कार्य करने लगते है। कहने का तात्पर्य यह है आय के कई श्रोत एक साथ खुल जाते है। निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर दिन में असीमित रोगियों को परामर्श देते है। यदि उनकी दैनिक आय का आंकलन किया जाय तो आंखे खुली की खुली रह जाएंगी। एक रोगी को देखने और परामर्श देने में अधिकतम 30 मिनट लगते है और फीस होती है 500 रुपये से लेकर 3000 रुपये तक। अंदाजा लगाना मुश्किल नही है कि आय के मामले में डॉक्टर देश मे किस श्रेणी में आते है लेकिन अगर देश को दिए जाने वाले आयकर को देखेंगे तो उनकी आय आधे से भी कम रह जाएगी। यह तो केवल परामर्श शुल्क की बात है इसके अलावा जांच शुल्क और दवाइयों से बिक्री में अत्यधिक कमीशन इससे कही ज्यादा प्राप्त होता है। यह सारा धन उस आम जनता की जेब से निकाला जाता है जो डॉक्टर को भगवान का दर्जा देकर भी कुछ भी कष्ट सहकर डॉक्टर को भुगतान करती है। लेकिन यहां तो मानवता शर्मशार होने के अलावा कुछ भी प्रभाव नही रखती।
       अब बात करते है निजी हॉस्पिटल्स की। माना कि हॉस्पिटल स्थापित करने में बड़ी राशि का निवेश करना पड़ता है और अच्छी देखरेख और इलाज के लिये अधिक धन खर्च भी अवश्यम्भावी है लेकिन इस व्यवसाय का संबंध कही न कहीं मानवता से जुड़ा है इसलिये इसका प्रयोग न्यूनतम लाभ के लिये किया जाना अपेक्षित है। लेकिन आजकल हॉस्पिटल्स को पूर्णतया व्यापारिक लाभ के उद्देश्य से चलाया जाता है। हॉस्पिटल में उच्च पदों पर बैठे मैनेजर्स नित्य आय के नए नए तरीके खोजते हैं। डॉक्टर्स को आपरेशन और विभिन्न जांचों को लिखने के लिये टारगेट फिक्स किये जाते है। रोगियों को डराकर उंन्हे अधिक समय तक हॉस्पिटल में लिटाया जाता है।अनावश्यक आपरेशन किये जाने और अंग तक निकल लिए जाने की रिपोर्ट भी आम हो गयी है। यही नही अपनी कुर्सी से उठकर हॉस्पिटल में ही रोगी के कमरे तक जाने में डॉक्टर की फीस दोगुनी हो जाती है। कमरे की छोटी सी सुविधा बढ़ने पर उसी डॉक्टर की फीस कई गुना बढ़ जाती है। और यदि रोगी का स्वास्थ्य बीमा अथवा उसे किसी विभाग की वित्तीय सुविधा उपलब्ध हो तो पूरा हॉस्पिटल उसे कशोटने में जुट जाता है। ऐसा नही है कि जनता और सरकार को इसकी जानकारी नही बल्कि बेबसी चुपचाप देखने को बाध्य करती है।
       एक और विंग इस व्यवसाय का हिस्सा है और वह है पैथोलॉजी लैब और दवा कंपनियां। देखा जाय तो इनका व्यवसाय डॉक्टर्स से बिल्कुल अलग है लेकिन डॉक्टर्स पर इस व्यवसाय की बढ़ोतरी निर्भर करती है। आपसी प्रतिस्पर्धा में डॉक्टर्स की भूमिका विशेष हो जाती है। डॉक्टर के परामर्श के अनुसार ही इनकी बिक्री घटती या बढ़ती है जिसका पूरा लाभ डॉक्टर्स उठाते है और उनके कमीशन के चलते जांच और दवाइयों की कीमत कई गुना बढ़ जाती है। यहां तक कि अधिकतर निजी चिकित्सको ने अपने ही हॉस्पिटल में अपने ही ब्रांड से दवाइया अधिक दाम पर बेचने का तरीका भी ईजाद कर लिया है। ऐसे डॉक्टर्स की लिखी दवाइया अक्सर शहर के दूसरे मेडिकल स्टोर्स पर नही मिलती।इस साठगांठ का खामयाजा भी उसी निरीह जनता को भुगतना पड़ता है।
       यह तो सर्व विदित है कि एक डॉक्टर भी अपनी शिक्षा के लिये अपना कीमती समय और धन खर्च कर अपने व्यवसाय को चुनता है इसलिये उसकी आय की अपेक्षा भी न्याय योचित है। दवा बनाने वाली कंपनी और पैथोलॉजी लेब, हॉस्पिटल्स की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है। लेकिन कहीं कुछ तो है जो यह व्यवसाय अनियंत्रित है। लिए जाने वाले लाभ की कोई अधिकतम सीमा नही है।जनता के अधिकारों और सुविधाओं की रक्षा करना सरकार का दायित्व है। सरकार सभी गतिविधियों को नियंत्रित करती है जिससे जनता को मिलनेवाली सुविधाएं बिना रुकावट सम रूप से उपलब्ध होती रहे। फिर विश्व के सबसे बड़े लूट बाज़ार की तरफ सरकार का ध्यान क्यो नही है?
क्या है समाधान!
        सरकार को पूरे व्यवसाय को एक मेडिकल कोड के माध्यम से नियंत्रित कर देना चाहिये। डॉक्टर्स की फीस उनकी योग्यता और इलाज की प्रकृति के आधार पर निश्चित कर देनी चाहिये। हॉस्पिटल के अंदर कमरे के किरायों और प्रत्येक चिकित्सा के लिये अधिकतम दर निर्धारित कर देनी चाहिए। दवाइयों का लागत मूल्य और दवा कंपनी और विक्रेताओं का अधिकतम लाभ की गणना कर एमआरपी सुनिश्चित करना चाहिये जिससे किसी भी स्थिति में कमीशन खोरी बंद हो। इसप्रकार दवाइयों की कीमंत 50 से 75% तक कम की जा सकती है। जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं के घटकों यानी मूल साल्ट में कोई अंतर नही होता अतः मूल्य में आनेवाले इस अंतर को समाप्त किया जाना चाहिए। कई साल्ट को मिलाकर एक दवाई बनाने में लागत उल्टे कम आनी चाहिये उसके नए नामकरण से मनमानी कीमत कैसे वसूली जा सकती है। जांच के लिये भी लागत आधार पर शुल्क सीमित कर दिया जाना चाहिए जिससे इसके गोरख धन्दे में न केवल कमीशन बाजी बन्द हो बल्कि कुकुरमुत्ता की तरह खुलरही पैथोलॉजी लैब की गुणवत्ता पर नियंत्रण हो सके और जनता के खून को नाली में व्यर्थ बहने से भी रोका जा सके। हमारे शास्त्रों में स्वास्थ्य को धन से अधिक महत्व दिया गया है लेकिन इस पवित्र कहे जानेवाले प्रोफेशन ने इसको उल्टा कर अपने हित मे लागू कर लिया है।
       सरकार को शीघ्र एक उच्च स्तरीय मेडिकल कोड आयोग का गठन कर शीघ्र मेडिकल कोड लागू कर जनता को उचित मूल्य पर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करानी चाहिए। देश मे और विश्व मे ऐसे भी डॉक्टर्स की कमी नही है जो इस सबके चलते भी निस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा कर रहे है। ऐसे लोग ही भगवान का स्वरूप कहे जा सकते है। धन्य और अनुकरणीय है ऐसे मानवता के सेवक।
लेखकः-ललित मोहन शर्मा
चेयरमैन
बिल्ड इंडिया फोरम

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