दिल्ली

दिल्ली के सवालों को उठाकर केजरीवाल सरकार दिल्ली के लोगों का ध्यान अपनी नाकामियों से हटाना चाहती है

दिल्ली। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की पूरी सरकार बीते कुछ दिनों से उपराज्यपाल के खिलाफ उनके ही ऑफिस में धरना दे रही थी। बहाना तो राज्य के अधिकारियों के काम नहीं करने का था, केजरीवाल सरकार यह संदेश देना चाह रही थी कि उसे काम नहीं करने दिया जा रहा है और दिल्ली के करीब डेढ़ करोड़ निवासियों की किस्मत तभी बदली जा सकेगी, जब उसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जा सके। सवाल यह है कि क्या चुनाव लड़ते वक्त केजरीवाल और उनके सहयोगियों को पता नहीं था कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम 1991 के तहत दिल्ली सरकार के पास कितने अधिकार हैं? दिल्ली हाईकोर्ट भी अपने एक फैसले में जाहिर कर चुका है कि दिल्ली सरकार के बॉस उपराज्यपाल ही हैं। दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित हैं, लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया जा रहा। इससे वितंडावाद को बढ़ावा मिल रहा है।

दिल्ली की शासन व्यवस्था   वैसे जानना चाहिए कि महाभारत से लेकर सल्तनत के दौर से होते हुए मुगल साम्राज्य के बाद हिंदुस्तान की राजधानी रही दिल्ली की शासन व्यवस्था को कितने अधिकार हैं। 1911 में जब अंग्रेजों ने कलकत्ता से लाकर दिल्ली को राजधानी बनाया, तब उस समय वह पंजाब राज्य का एक जिला ही होता था। 12 दिसंबर, 1911 को ब्रिटिश राजा जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के ठीक पहले अंग्रेजों को लगा कि राष्ट्रीय राजधानी के लिए अलग और खास शासन व्यवस्था होनी चाहिए, लिहाजा 17 सितंबर, 1911 को एक आदेश के जरिये दिल्ली की शासन व्यवस्था भारत के तत्कालीन शासक गवर्नर जनरल और उनकी काउंसिल को सौंप दी गई। जिसमें पुराने शहर के साथ ही महरौली थाने के अधीन आने वाले 65 गांव भी शामिल थे।

गवर्नर जनरल का शासन   1915 में यमुनापार के इलाके उसी दिल्ली के अधीन लाए गए, जिस पर गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल का शासन था। तब से लेकर अब तक दिल्ली को वैसा अधिकार और दर्जा हासिल नहीं हो पाया है, जैसा अधिकार और दर्जा उत्तर प्रदेश, बिहार या मध्यप्रदेश समेत 29 राज्यों को हासिल है। एक संविधान के संशोधन के जरिये दिल्ली को 70 सदस्यीय विधानसभा का हक दे दिया गया, लेकिन हकीकत तो यही है कि दिल्ली ना तो अर्ध राज्य है और ना ही राज्य, बल्कि यह केंद्र शासित प्रदेश है और केंद्र शासित प्रदेश की सत्ता के लिए संविधान में साफ उपबंध है कि वहां का शासन राष्ट्रपति अपने नियुक्त पदाधिकारी के जरिये चलाएंगे। जो पुदुचेरी, दिल्ली, अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप में उपराज्यपाल के नाम से जाने जाते हैं तो दादर और नागर हवेली, चंडीगढ़, दमन और दीव में उन्हें प्रशासक के तौर पर जाना जाता है।

मोदी सरकार के खिलाफ आप का हंगामा  आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद उपराज्यपाल और मोदी सरकार के खिलाफ जिस तरह हंगामा बरपता रहा है, उससे दिल्ली राज्य की स्थिति, मौजूदा सरकार के अधिकारों और उसकी असल ताकत को लेकर जनमानस में छाया कुहासा साफ होने के बजाय और गहरा ही हुआ है।1हकीकत तो यह है कि दिल्ली सरकार अपने अधिकारों की सही व्याख्या के बजाय 70 सदस्यीय विधानसभा में 67 सीटों पर जीत पर ज्यादा जोर दे रही है। केजरीवाल सरकार का आरोप है कि मोदी सरकार उपराज्यपाल के जरिये अपना एजेंडा थोप कर दिल्ली की जनता का अपमान कर रही है। ऐसा करते वक्त वह 69वें संविधान संशोधन अधिनियम, जिसे व्यवहार में राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1991 कहा जाता है, को नकार रही है। ऐसा करते वक्त संविधान के अनुच्छेद 239 क (क) और 239 क(ख) को छोड़ दिया जा रहा है। जिसमें दिल्ली सरकार की व्यवस्था है।

विधानसभा की शक्तियां सीमित  दिल्ली के अलावा दूसरे केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी में ही विधानसभा है। उसकी भी विधानसभा की शक्तियां सीमित हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर जब सीमित शक्तियां ही दी जानी थीं तो फिर विधानसभा का गठन ही क्यों किया गया? संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का तर्क है कि विधानसभा और सीमित अधिकारों वाली सरकार का प्रावधान इसलिए किया गया ताकि दिल्ली में सक्रिय कुछ नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं संतुष्ट की जा सकें, उन्हें मंत्री आदि जैसी सहूलियत देकर उनके राजनीतिक वजूद को स्वीकार किया जा सके।1जब अंग्रेजों ने दिल्ली को राजधानी बनाया और इसका शासन अलग तरीके से चलाने का फैसला किया तो उसकी असल व्यवस्था चीफ कमिश्नर के हाथों में सौंप दी। तब अजमेर और कच्छ जैसे राज्य ही चीफ कमिश्नर के अधीन थे। जब स्थानीय स्वशासन के लिए अंग्रेजों ने 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पास किया तो उसमें दिल्ली के लिए अलग राज्य की व्यवस्था नहीं की गई।

चौधरी ब्रह्म प्रकाश बने मुख्यमंत्री  आजादी के बाद उसे भावी राज्य का दर्जा देने के लिए पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई। अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी, ऑस्ट्रेलिया की संघीय राजधानी मेलबर्न और ब्रिटिश राजधानी लंदन की शासन व्यवस्था के अध्ययन के बाद कमेटी इस नतीजे पर पहुंची कि राष्ट्रीय राजधानी के चलते दिल्ली को समूह ग वर्ग का राज्य रहने दिया जाए। 1953 में जब फजल अली आयोग बना और उसने 1955 में राज्यों के पुनर्गठन का सुझाव दिया तो दिल्ली की वह व्यवस्था बदल दी गई, जिसके तहत 1952 में सीमित अधिकारों वाली विधानसभा दी गई थी और उसके तहत चौधरी ब्रह्म प्रकाश को मुख्यमंत्री बनाया गया था, लेकिन राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के बाद दिल्ली की विधानसभा व्यवस्था नवंबर 1956 में वापस ले ली गई। इसके बाद दिल्ली पर पहले नगर निगम और बाद में महानगर परिषद के जरिये शासन किया जाता रहा। लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि व्यवस्था के अलावा सभी अधिकार स्थानीय स्वशासन को सौंपे गए। 1991 के अधिनियम में भी यही व्यवस्था लागू है।

संसद की सर्वोच्चता  इसके मुताबिक संविधान में प्रदत्त राज्य सूची के सभी विषयों पर (लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि को छोड़कर) कानून बनाने का अधिकार दिल्ली विधानसभा को होगा, लेकिन इसी अधिनियम में एक व्यवस्था है कि संसद के कानून की राह में दिल्ली की विधानसभा के कानून बाधा नहीं बनेंगे। इससे साफ है कि दिल्ली विधानसभा को राज्यसूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार भले ही हो, लेकिन उनमें भी संसद की सर्वोच्चता रहेगी। कहना न होगा कि दिल्ली की मौजूदा सरकार इस सर्वोच्चता को या तो समझने की कोशिश नहीं कर रही या फिर वह अपने अपार बहुमत के बहाने दिल्ली के सवालों को उठाकर वह दिल्ली के लोगों का ध्यान अपनी नाकामियों से हटाना चाहती है। दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग को लेकर राजनीतिक दलों के अपने तर्क हैं। जब 1993 में दिल्ली में विधानसभा अस्तित्व में आई और उसमें भाजपा को बहुमत मिला, मदनलाल खुराना की सरकार ने बाकायदा विधानसभा से पूर्ण राज्य का प्रस्ताव तक पारित करा दिया।

पहले भी हुई है पूर्ण राज्‍य की मांग   यह बात और है कि तब केंद्र में कांग्रेस सरकार थी। ठीक पांच साल बाद जब केंद्र में भाजपा काबिज हुई, तब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार बनी और पूर्ण राज्य की मांग को लेकर अपने-अपने तर्क जारी रहे। 2003 में एनडीए सरकार ने संसद में दिल्ली राज्य अधिनियम पेश तो किया, लेकिन इसे पारित होने के पहले ही लोकसभा भंग हो गई। इसके बाद दिल्ली और केंद्र में कांग्रेस की सरकारें रहीं, लेकिन पूर्ण राज्य को लेकर दोनों तरफ से कोई कोशिश नहीं हुई। केजरीवाल के धरने को समझने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का बयान मानीखेज है। उन्होंने कहा है, ‘केजरीवाल, संविधान बदलने की बात क्यों कर रहे हैं ये साफ समझ आ रहा है। हमने भी सरकार चलाई है, काम किया है, दिल्ली यूनियन टेरिटरी है, यहां काम कर पाने में अक्षम हैं वे।’

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