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कांग्रेस की ओर से राहुल की वायनाड की दावेदारी को राजनीतिक रणनीति बताया जा रहा

नई दिल्ली। ..तो क्या राहुल गांधी ने मान लिया कि पारम्परिक और एक मायने में अपनी पुश्तैनी लोकसभा सीट अमेठी में ‘गेस्ट अपीरियंस’ उनको भारी पड़ चुका है? और इस बार अमेठी की जनता उन्हें सिर्फ एक मेहमान की तरह ही देख रही है, जो कुछ दिनों बाद उनके बीच नहीं रहेगा? वरना क्या कारण हो सकता है कि वह केरल में खुद के लिए एक सुरक्षित सीट ढूंढें। यह सच है कि किसी भी राजनीतिज्ञ की तरह उन्हें संवैधानिक अधिकार है कि एक से ज्यादा लोकसभा सीट से लड़ें, लेकिन फिलहाल यह दलील सिर्फ मन बहलाने के लिए होगी। पिछले चुनाव में वह भाजपा की स्मृति ईरानी के मुकाबले जीत के अंतर में चार लाख से घटकर सीधे एक लाख पर आ गए थे, वह डरावना है। ऐसे में जाहिर है सत्ता के लिए हर एक दल का दरवाजा खटखटा रही कांग्रेस के कप्तान को बचाना सबसे जरूरी है। वायनाड शायद इसी का परिणाम है, लेकिन उन्हें भी जान लेना चाहिये कि गठबंधन के साथियों से अपेक्षित समर्थन और प्रतिष्ठा पाने में नाकाम राहुल इस फैसले के बाद और भी घिरेंगे।  कांग्रेस की ओर से राहुल की वायनाड की दावेदारी को राजनीतिक रणनीति बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे कांग्रेस को दक्षिण भारत के तमिलनाडु, कर्नाटक में भी बढ़त मिलेगी। यह बात किसी के गले नहीं उतरेगी। यह रणनीति होती है लेकिन तब जब संबंधित व्यक्ति ने अपनी कुछ ऐसी छवि बनाई हो जिससे स्थानीय जनता लाभांवित होने की आशा रखे। पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी वडोदरा के साथ वाराणसी से लड़े तो विकास की छवि थी। घोषित रूप से एक प्रधानमंत्री उम्मीदवार भी था। मुलायम सिंह यादव अपनी पारम्परिक सीट मैनपुरी के अलावा आजमगढ़ से भी लड़े तो उस मुश्किल सीट को बचाने। यहां संदेश यह है कि राहुल खुद को बचाने उतरे हैं।

दरअसल पंद्रह साल तक अमेठी का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद वहां राहुल विकास नहीं ला पाए। बिजली, पानी, सड़क भी इसकी दास्तान बताती है। दस साल तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही, बल्कि आरोप तो तब भी लगता रहा कि असली पीएम वही हैं, लेकिन कोई ऐसी योजना परवान नहीं चढ़ सकी जो अमेठी का भविष्य बनाये। पास की रायबरेली सीट से उनकी मां सोनिया गांधी, उनकी दादी इंदिरा गांधी और दादा फिरोज गांधी प्रतिनिधित्व करते रहे। विकास तो वहां भी बहुत नहीं है लेकिन राहुल अपनी मां और पिता राजीव गांधी की सौम्यता भी नहीं ला पाए।  दूसरी ओर, पिछले चुनाव में राहुल से पराजित स्मृति ईरानी हर सप्ताह या पंद्रह दिनों में अमेठी की गलियों में घूमती रहीं। किराये पर घर लेकर वहां रहना शुरू कर दिया। यह थोड़ा अद्भुत मामला है कि जीते हुए राहुल गेस्ट अपीयरेंस में रहे और हारी हुई स्मृति वहीं की हो गईं। पिछली बार स्मृति को आखिरी मौके पर उतारा गया था लेकिन उसी बीस-पच्चीस दिनों में उन्होंने राहुल के जीत की मार्जिन को चार लाख से घटा कर एक लाख कर दिया था। जाहिर है कि कांग्रेस और राहुल चौकन्ने हैं। अब जरा बात कांग्रेस की उस रणनीति की जिसके तहत वह दक्षिण पर राहुल के प्रभाव को देख रही है। तमिलनाडु और कर्नाटक दोनों जगह कांग्रेस गठबंधन में है। तमिलनाडु में कांग्रेस द्रमुक की छोटी पार्टनर है और कर्नाटक में राहुल से बड़े नेता पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया हैं। सभी जानते हैं कि पिछले चुनाव में पूरी लगाम सिद्धरमैया के हाथ थी। ऐसे में दक्षिण की रणनीति का तर्क कम से कम उत्तर प्रदेश और अमेठी के लोग तो नहीं मान सकते। तीन राज्यों में जीत का सेहरा बांध रहे राहुल का प्रभाव तो तब देखा जाता जब वह कहते कि अबकी अमेठी के आसपास की सीट भी जिताएंगे। भाई अमेठी तो उनकी पुश्तैनी सीट है और मदद के लिए उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा भी मैदान में हैं। लिहाजा, यह बात भी गले नहीं उतरती है। कांग्रेस का तर्क तब गले उतरता जब वह अमेठी में जीत का अंतर बढ़ाने के बाद दूसरी सीट पर जाते, अभी तो उल्टा मामला है। यह सवाल राहुल से अमेठी में भी पूछा जाएगा वायनाड में भी।

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