उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा के लिए बाहर ही नहीं अंदर भी परेशानी खड़ी कर दी है
नई दिल्ली । दो दिन पहले आए उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा के लिए बाहर ही नहीं अंदर भी परेशानी खड़ी कर दी है। राजग के घटक दल इसे अपनी उपयोगिता बढ़ने के तौर पर देख रहे हैं और इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले समय में उनकी ओर से थोड़ा दबाव भी बढ़ेगा। हालांकि, वे तीन राज्यों के चुनाव के बाद ही अपनी रणनीति तय करेंगे। वहीं भाजपा की ओर से संवाद प्रक्रिया तेज होगी। उपचुनावों में लगातार मिल रही हार को भाजपा 2019 के चुनाव से जोड़कर नहीं देख रही है, लेकिन सहयोगी दल अपना महत्व बढ़ाने के लिहाज से इसमें खुद के लिए अवसर देख रहे हैं। खासकर तब जबकि विपक्षी खेमा मजबूत होने का दावा कर रहा है और इसके कारण भाजपा को झटका भी लगा है। यह स्थिति बिहार और उत्तर प्रदेश से जहां सीधे तौर पर जुड़ती है, वहीं महाराष्ट्र में इसे संभावना के तौर पर भी तलाशा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में भारतीय समाज पार्टी, अपना दल जैसे दलों में बेचैनी है कि उन्हें शायद पिछली बार की तरह सीटें न मिले। वहीं बिहार में जदयू के साथ गठबंधन के बाद सीटों के बंटवारे को लेकर खींचतान अवश्यंभावी है। दरअसल वर्तमान स्थिति में 40 में से 30 सीटों पर तो पूर्ववर्ती राजग के सांसद मौजूद हैं, जबकि जदयू की ओर से दावा होगा कि उसे बड़ी हिस्सेदारी मिले। सूत्रों का कहना है कि उपचुनाव के नतीजों ने घटक दलों को बल दे दिया है। वैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के आगामी चुनाव के बाद ही यह दिखेगा कि सहयोगी दलों का तेवर कितना बदलेगा। अगर भाजपा यहां अपना दबदबा बनाए रखने में सफल होती है, तो वह दबाव को झटकने में सफल हो सकती है।जाहिर तौर पर भाजपा पर दबाव है कि साथी और न छिटकें। यही कारण है कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की घोषणा के बावजूद प्रदेश के भाजपा नेतृत्व से तीखी टिप्पणी नहीं हो रही है। बार-बार यह संदेश दिया जा रहा है कि वे साथ रहकर एक दूसरे की मदद कर सकते हैं। खैर, गठबंधन बचाना ही नहीं, बढ़ाना भी राजनीतिक जरूरत है। विपक्षी खेमे के सामने मजबूत दावेदारी तो अहम है ही, हाल के सुप्रीम कोर्ट के आदेश में भी यह स्पष्ट हो गया है कि सबसे बड़ी पार्टी के बहुमत तक नहीं पहुंचने की स्थिति में चुनाव पूर्व गठबंधन का हक सबसे ज्यादा बनता है। माना जा रहा है कि जल्द ही राजग घटक दल नेताओं की बैठक बुलाई जा सकती है।
कैराना में हार का अंतर घटाने में जुटी रही भाजपा ऐसा नहीं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश की कैराना सीट के नतीजों का अहसास नहीं था। पार्टी को यह पहले ही पता चल चुका था कि बाजी हाथ से निकल रही है। ऐसे में पूरी कोशिश यह थी कि विपक्षी खेमे के साझा उम्मीदवार के रूप में उतरी रालोद प्रत्याशी की जीत का मार्जिन बहुत बड़ा न होने पाए। एकजुट विपक्ष और वोटों के समीकरण में पार्टी पिछड़ गई थी। नतीजों के कारण कई थे। गन्ना उत्पादक कैराना संसदीय क्षेत्र की सबसे बड़ी शामली की चीनी मिल से किसानों को भुगतान न के बराबर ही हुआ, जिसकी नाराजगी भी भारी पड़ी। गन्ना मूल्य का बकाया चुकाने में राज्य सरकार की कोशिशें नाकाम रहीं। चालू पेराई सीजन के बकाया की जगह भाजपा बीते सालों के भुगतान का राग अलापती रही। विपक्षी दलों ने सियासी परिपक्वता का परिचय देते हुए मुस्लिम प्रत्याशी तबस्सुम हसन को रालोद के टिकट पर मैदान में उतारा, जिसकी काट भाजपा के पास नहीं थी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव पूरे प्रदेश से मुस्लिम राजनीति हाशिये पर आ गई थी। राज्य की बड़ी मुस्लिम आबादी के नेता संसद और राज्य के विधानमंडल से बाहर हो गए, जिसका अफसोस मुस्लिम मतदाताओं को कराने में विपक्ष सफल रहा। चुनाव प्रचार के दौरान इसका अहसास भाजपा को हो गया था। लोकसभा चुनाव से पूर्व पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुस्लिम-जाट मतदाताओं के बीच जबर्दस्त दूरी बन गई थी। उपचुनाव में इसका ठीकरा सपा और बसपा पर फूटता भी, लेकिन दोनों दलों ने इसे भांपकर ही चुनाव प्रचार से दूरी बना ली। भाजपा की मेहनत पर उनकी इस सियासी चाल ने पानी फेर दिया। उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के स्थानीय नेता व रालोद के बड़े नेता जहां केंद्र और राज्य की योगी सरकार को लोकल और राष्ट्रीय मुद्दों पर घेर रहे थे, वहीं भाजपा मुद्दों के लिए जूझती नजर आई। इसी बीच, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर का मामला सामने आया, जिसे रालोद ने लपक लिया। कैराना संसदीय क्षेत्र में सर्वाधिक 16 लाख मतदाताओं का अंकगणित भी भाजपा को उल्टा पड़ रहा था। इनमें साढ़े पांच लाख मुस्लिम, पौने तीन लाख दलित और लगभग दो लाख जाट मतदाता हैं। भाजपा के सामने विपक्ष का साझा प्रत्याशी होने से मतों के बंटने के आसार समाप्त हो चुके थे। भाजपा के स्थानीय नेताओं को चुनाव में तवज्जो नहीं देना भी पार्टी पर भारी पड़ा।