हमन पंडो मन वोट वहि ला देब जो हमके ये सब झंझट से बचाई, पांडवों के वंशज
अंबिकापुर। सत्ता की राजनीति में अज्ञातवास का हमेशा से ही महत्व रहा है। भावी विजेताओं को संघर्षकाल में अक्सर अज्ञातवास में जाना पड़ा है। महाभारत काल में जहां शकुनि के पासों से मात खाकर पांडवों को अज्ञातवास पर जाना पड़ा वहीं अंग्रेजों के वारंट के चलते डा. राजेंद्र प्रसाद को अज्ञातवास के लिए उन्हीं पांडवों के वंशजों के यहां शरण लेनी पड़ी थी। अज्ञातवास के बाद पांडव विजेता बनकर उभरे और डा. राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। सरगुजा के जंगल से बस्तियों तक निवास कर रहे पण्डो जनजाति जो खुद को पांडवों का वंशज होने का दावा करते हैं, इनका इतिहास ही निराला है। डा. राजेंद्र प्रसाद जब राष्ट्रपति बने तो पण्डो जनजाति को राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र बनाया। यह दत्तक पुत्र आज अपने हकों के लिए ब्लॉक, तहसीलों और राजनीतिक आकाओं के यहां चक्कर काट रहे हैं। लगातार उपेक्षित पण्डो को उम्मीद की आस तब दिखाई देती है जब राज्य में चुनावी लाउडस्पीकर बजने लगते हैं और घोर वीराने में बसी उनकी बस्तियों में सियासी पहरुए वायदे की पोटली लेकर दस्तक देते हैं। पट्टों के नवीनीकरण, पानी-बिजली की सुविधाओं, बस्तियों में सड़क लाने और बेहतर जिंदगी के जुमले एक बार फिर उन्हें आशाओं के समुद्र में ले जाते हैं। अभी तक का इतिहास रहा है कि चुनाव के बाद फिर वही ढाक के तीन पात।