एफआरआई में चीड़ की पत्तियों के उपयोग पर कार्यशाला का हुआ आयोजन
देहरादून। वन अनुसंधान संस्थान देहरादून के सहयोग से हिमाचल प्रदेश वन विभाग द्वारा नाहन में प्राकृतिक रेशों के स्रोत के रूप में चीड़ की पत्तियों के उपयोग पर एक कार्यशाला का आयोजन किया गया। वन अनुसंधान संस्थान देहरादून के रसायन विज्ञान एवं जैव पूर्वेक्षण प्रभाग द्वारा चीड़ की पत्तियों से प्राकृतिक रेशा निकालने के लिए एक आसान, किफायती एवं पर्यावरण अनुकूल तकनीक विकसित की गई है। इस तकनीक को अधिक स्थान, ऊर्जा, उपकरण, आदि की आवश्यकता नहीं होती है। जिस कारण इसे दूर दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपनाया जा सकता है। इस तकनीक को पहली बार हिमाचल प्रदेश राज्य में अपनाया जा रहा है। इस तकनीक के हस्तांतरण पर वन अनुसंधान संस्थान की ओर से निदेशक अरूण सिंह रावत तथा हिमाचल प्रदेश वन विभाग की ओर से अजय श्रीवास्तव, प्रधान मुख्य वन संरक्षक (हॉफ) द्वारा लाईसेंस मसौदे पर हस्ताक्षर किए गए।
इस अवसर पर आर0 पी0 सिंह, प्रभाग प्रमुख, वन संवर्धन एवं प्रबंधन प्रभाग, डॉ0 विनीत कुमार, वैज्ञानिक-जी एवं परियोजना अन्वेषक, रसायन विज्ञान एवं जैव-पूर्वेक्षण प्रभाग तथा हिमाचल प्रदेश वन विभाग से सरिता कुमारी, वन संरक्षक, नाहन एवं उर्वशी ठाकुर, प्रभागीय वनाधिकारी, रेनुका वन प्रभाग, हिमाचल प्रदेश उपस्थित रहे। हिमाचल प्रदेश में लगभग 1,25,885 है0 क्षेत्र चीड़ के जंगलों से आच्छादित हैं। प्रति वर्ष अप्रैल से जून माह के बीच प्रति हैक्टेयर लगभग 1.2 टन चीड़ की पत्तियाँ जंगल में गिरती हैं। ये पत्तियाँ बहुत ज्वलनशील होने के कारण विनाशकारी जंगल की आग का कारण बनती है जिससे लकडी, बिरोज़ा, वृक्षारोपण, वन्यजीव तथा करोडो रूपयों की अन्य जैव विविधता का नुकसान होता है। जंगल की आग की निवारण तथा रोकथाम के लिए वन विभाग को प्रति वर्ष अत्यधिक धन एवं संसाधन खर्च करने पडते हैं। जहाँ एक तरफ इस तकनीक को अपनाने से जंगल की आग को रोकने में मदद मिलेगी जबकि इसके साथ साथ यह स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों से आजीविका के वैकल्पिक स्रोत भी प्रदान करेगा। इस तकनीक के सफल कार्यान्वयन से बडे पैमाने पर सामुदायिक भागीदारी होगी। हिमाचल प्रदेश में जंगल से चीड की पत्तियों के संग्रह और निष्कासन पर एक नीति है जिसमें चीड की पत्तियों पर आधारित उघोगों पर निवेश सब्सिडी की व्यवस्था भी की गई है।
इस अवसर पर हिमाचल प्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (हॉफ) अजय श्रीवास्तव ने आशा व्यक्त की कि इस तकनीक को अपनाने से निकट भविष्य में राज्य में वनाग्नि की रोकथाम होगी तथा जिन पत्तियों को अब तक अपशिष्ट माना जाता था तथा उनसे मिलने वाले प्राकृतिक रेशे से मैट, कालीन, रस्सियों आदि उत्पादों को बनाकर आयसृजन का विकल्प भी उत्पन्न होगा। कार्यक्रम के दौरान अरूण सिंह रावत, महानिदेयशक, भा.वा.अ.एवं शि.प. तथा निदेशक, व0अ0सं0 ने अपने व्याख्यान में हिमाचल प्रदेश वन विभाग को इस तकनीक को लेने के लिए धन्यवाद दिया तथा यह सुझाव दिया कि वन अनुसंधान संस्थान द्वारा जैवसंसाधनों की नई तकनीकों को अपनाने से इनका बेहतर उपयोग तथा आजीविका के नए स्रोत उत्पन्न होंगे। उन्होने इस बात पर भी जोर दिया कि वन अधिकारियों एवं कर्मियों को नई तकनीकों को अपनाने के लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए ताकि वर्तमान समस्याओं का निवारण किया जा सके। कार्यशाला के दौरान चीड़ के रेशे से बने उत्पादों जैसे कि कपडे, चप्पल, कोस्टर, रस्सियों आदि का एक नमूना भी प्रदर्शित किया गया। साथ ही इस तकनीक को विकसित करने वाले वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ0 विनीत कुमार द्वारा चीड की पत्तियों से रेशा निकालने की पद्धति के बारे में एक विस्तृत प्रस्तुति दी गई। इस कार्यशाला में रेणुकाजी व नोहराधार, हिमाचल प्रदेश की ग्राम वन विकास सोसाईटियों के सदस्यों ने भी भाग लिया।