भारत में लेनिन और उनके आयातित विचारों की क्या जरूरत
दक्षिण त्रिपुरा के जिस बेलोनिया चैराहे पर लगी लेनिन की प्रतिमा को ढहाया गया है, उसका अनावरण कुछ महीने पहले माकपा नेता प्रकाश करात ने किया था। नेताओं की प्रतिमाएं तोड़ा जाना कोई नई बात नहीं है। रूसी राष्ट्रपति गोर्बाचोव के कार्यकाल में जब सोवियत संघ खंडित होकर 15 टुकड़ों में बंटा तब नए देशों ने मार्क्स और लेनिन के वैचारिक लबादे को उतारकर आधुनिक चोला पहनने को तरजीह दी। अकेले यूक्रेन में ही लेनिन की 1300 से अधिक प्रतिमाओं को जमींदोज कर दिया गया था। फिर वहां 2015 में कानून बनाकर लेनिन के नाम पर बनी संस्थाओं और मार्गों के नाम भी बदल दिए गए। अब जब यूक्रेन में लेनिन की जरूरत नहीं तो भारत में क्यों होनी चाहिए।
आयातित विचार आखिर कब तक
यदि राजनीतिक दल और नेता एक-दूसरे के प्रति दुश्मनी की दुर्भावना से काम करेंगे तो प्रजातंत्र पर संकट तो पैदा होगा ही, देश की भी अंतरराष्ट्रीय साख प्रभावित होगी। हालांकि सत्ता परिवर्तन के बाद स्मारक और प्रतिमाएं तोड़े जाने के उदाहरण दुनिया में तो बहुत हैं, लेकिन भारत में अपवादस्वरूप ही देखने में आते हैं। यही वजह है कि अंग्रेजी राज खत्म होने के बाद उसके तमाम अवशेष आज भी हैं। सवाल उन मार्क्सवादी वमपंथियों पर भी उठते हैं जो भारतीय होते हुए भी न केवल आयातित विचारधारा को महत्व देते हैं, बल्कि अपने वैचारिक धरातल पर भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सर्वथा नकारते हैं।
अपनी ही विचारधारा से सिमट रहे वामदल
वामपंथियों की त्रिपुरा, केरल और पश्चिम बंगाल में दशकों तक सरकारें रहीं, लेकिन कभी देखने में नहीं आया कि उन्होंने महात्मा गांधी, रानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप या शिवाजी की प्रतिमाएं लगाने की पहल की हो। आज वामपंथी यदि सिमट रहे हैं तो उसकी एक वजह यह भी है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, साहित्य और इतिहास से वामपंथियों के गहरे व रचनात्मक सरोकार कभी नहीं रहे। इसीलिए अनुकूल परिस्थितियों में जब जनआकांक्षाएं जोर पकड़ती हैं तो कुछ उम्माद की स्थितियां भी उत्पन्न होती हैं और अनुशासन भी टूटता है। त्रिपुरा में कमोबेश ऐसा ही हुआ।