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देश के सामने चाल, चरित्र व चेहरा चुनने का होगा महासंकट

मोदी सरकार की ताकत संसद में लगातार घट रही है। यूपी सहित हुए बीते आधा दर्जन लोकसभा उपचुनावों में बीजेपी को हार ही मिली है। सबसे अधिक आश्चर्य यूपी के गोरखपुर और फूलपुर सीट की हार से हुआ। इन दोनों सीटों पर 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को लाखों से ज़्यादा वोटों से जीत मिली थी। ये दोनों सीटें उसी उत्तर प्रदेश में हैं जिसने 2014 में नरेंद्र मोदी की ज़ोरदार जीत का रास्ता बनाया था। तो इस लिहाज से ये हार बीजेपी के लिए ख़तरे का संकेत है। इतना ही नहीं 2019 की तैयारी भी शुरु है। बीजेपी के गिरते ग्राफ, हर रोज बनते बिगड़ते गठबंधन, राज्यों बदलती राजनीतिक संरचना से सबसे बड़ी परेशानी उन वोटरों को होगी जिन्हें 2014 में मोदी जैसा नेता मिला था। ये वोटर मोदी से नाराज भी हैं और उनके सामने यह भी संकट है कि मोदी के अलावा कौन। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि देश के सामने चाल चरित्र चेहरा चुनने का महासंकट खड़ा होगा। या फिर हमेशा की तरह एक बार फिर कैश, क्राइम और कास्ट की बदौलत सरकार बनेगी।

40 फीसदी है एसपी बीएसपी का वोट बैंक
यूपी से संसद में 80 सांसद चुने जाते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि संसद पहुंचने का रास्ता यूपी से होकर ही जाता है। यूपी में हुए उपचुनाव के नतीजों ने एक बार फिर बीजेपी को सोचने पर मजबूर कर दिया है। हालांकि इस नतीजे को 2019 के चश्में से देखना अभी जल्दबाजी होगी। इसी साल मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं। इस चुनाव के जो नतीजे होंगे उससे 2019 की तस्वीर कुछ हद तक साफ नजर आ सकती है। उपचुनाव में मतदान प्रतिशत का कम होना, नरेंद्र मोदी और अमित शाह का प्रचार नहीं करना और सपा बसपा का होना। ऐसे कई फैक्टर थे जिससे नतीजे बीजेपी के लिए सकरात्मक नहीं हुए। बीजेपी को अब यह भी देखना होगा कि यूपी में बीएसपी का वोटबैंक 20 फ़ीसदी है तो सपा का भी 20 फ़ीसदी रहा है। दोनों एक साथ हो जाएंगे तो उसके सामने किसी तरह की रणनीति के कामयाब होने की संभावना बहुत कम ही बचती है। लोकसभा के उपचुनाव में अब तक बीजेपी 10 सीटों पर चुनाव हार चुकी है। इससे साफ़ है कि भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। यही कारण मोदी की टीम संसद में कमजोर हो रही है।

गठबंधन की नई राजनीति
2014 के आम चुनावों के नतीजों के बाद बीजेपी के नेताओं ने यहां तक कहना शुरु कर दिया था कि क्षेत्रीय दलों के दिन लदने वाले हैं। लेकिन उपचुनावों की लगातार हार व यूपी में सपा बसपा गठबंधन ने नई राजनीति की शुरुआत कर दी है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों को समाप्त नहीं माना जा सकता। गोरखपुर, फूलपुर और अररिया के चुनावी नतीजों ने क्षेत्रीय दलों को नया जीवन दिया है। यूपी में बीएसपी व सपा को इस बात का एहसास हो गया था कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए साथ आना होगा। ऐसा ही प्रयोग 2015 में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार ने एक साथ आकर किया था।

सोनिया भी तैयार कर रही हैं टीम
11 मार्च की रात यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने विपक्ष के नेताओं को डिनर पर बुलाया था, उसमें देश के 20 राजनीतिक दलों के नेता एकजुट हुए थे। ये वह नेता हैं जिनके दलों को अपने अपने राज्य में लोकसभा चुनाव के दौरान हार देखने को मिली थी, लेकिन विपक्ष के इन नेताओं के बीच अब इस बात की समझ बन रही है कि एक साथ होने पर वे नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोक सकते हैं। अब विपक्ष के पास भी एनडीए के घोटालों की लंबी फेहरिस्त है। इसके अलावा देश के 21 राज्यों में बीजेपी की सरकार है। 2019 में लोग उनसे सवाल पूछेंगे। राज्य सरकारों के प्रति आम लोगों का गुस्सा बढ़ रहा है। लोगों में नाराज़गी बढ़ रही है, वे बीजेपी को हराने के लिए वोट कर रहे हैं क्योंकि उनसे जो वादे किए गए हैं, वो पूरे नहीं हो रहे हैं। मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यही है।

2019 की रणनीति हो रही तैयार
उपचुनावों के नतीजों से ये भी नहीं कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी का जादू कम हो रहा है क्योंकि मौजूदा समय में वे देश के सबसे बड़े नेता हैं, उनकी अपनी लोकप्रियता बनी हुई है। लेकिन जब आम चुनाव लड़े जाते हैं तो कई राज्यों में आपको चुनौती देने के लिए क्षेत्रीय दल होते हैं। मौजूदा समय में आप देखें तो कई राज्यों में ऐसे दल मौजूद हैं, जैसे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी हैं, ओडिशा में नवीन पटनायक हैं, तेलंगाना में टीआरए है, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल है और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी है, जो अपने-अपने क्षेत्रों में नरेंद्र मोदी को दमदार चुनौती देते नजर आ रहे हैं। राज्य की जनता स्थानीय मुद्दे पर लोकसभा चुनावों में भी वोट करती है। अब अगर ये दल आम चुनाव को भी स्थानीयता का रंग देते हैं तो आम लोगों के दिमाग़ पर छवि का कोई असर खत्म होने का डर होगा। मोदी बहुत लोकप्रिय हैं, लेकिन आम लोग सवाल पूछते हैं कि आपने जो वादे किए थे, उसका क्या हुआ, आपके मुख्यमंत्री ने क्या काम किया, या फिर एंटी इनकम्बेंसी का फ़ैक्टर बढ़ेगा। जब आपकी तमाम जगहों पर सरकार होगी, तो नाराज़गी भी ज़्यादा होगी।

ग्रामीणों में बढ़ रहा है गुस्सा
2014 की तुलना में शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ़ का अंतर तेजी से बढ़ रहा है। केंद्र सरकार को लेकर ग्रामीण इलाक़ों में गुस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है क्योंकि किसानों से जो भी वादे किए गए हैं, उसे अमल में नहीं लाया जा रहा है।
पिछले दिनों ही जिस तरह मुंबई की सड़कों पर महाराष्ट्र के किसानों का जो प्रदर्शन देखने को मिला है, वह एक तस्वीर है कि किस तरह से देश भर में किसानों के बीच गुस्सा बढ़ रहा है और वो प्रकट भी हो रहा है। 2004 में शाइनिंग का हाल सबने ​देखा था, मोदी सरकार अगर समय रहते नहीं संभली तो 2019 में मोदी का न्यू इंडिया होगा, जिसमें जनता नरेंद्र मोदी से ये ज़रूर पूछेगी कि आपके न्यू इंडिया से हमारे जीवन में क्या बदलाव हुआ है?

मोदी नहीं कौन
2019 के आम चुनावों में विपक्ष ही नहीं आम जनता के सामने यह सवाल होगा कि मोदी की जगह और कौन ले सकता है। इसमें पहला नाम जो सबके जेहन में आता है वो है राहुल गांधी। लेकिन यूपीए के कई घटक ही अभी राहुल को अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं। वहीं राहुल को भी मोदी के बराबरी के लिए अभी बहुत मेहनत की जरूरत है। हालांकि सोनिया के साथ दो दर्जन बड़े दल हैं, जिनमें कई अनुभवी नेता हैं जिन्होंने कई बार केंद्र मे बड़ी जिम्मेदारी है।

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