तीन सीटों के त्रिकोण में फंसे सिद्धारमैया
चामुंडेश्वरी । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चामराज नगर की रैली में कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.सिद्धारमैया पर यह कहते हुए तंज कसा था कि कुछ लोग 2 + 1 के चक्कर में पड़ गए हैं। दरअसल उनका इशारा सिद्धारमैया द्वारा खुद दो सीटों से लड़ते हुए अपने पुत्र को अपने पुराने क्षेत्र से लड़वाने की ओर था। सिद्धारमैया पुनः विधानसभा में पहुंचने की कोशिश के तहत इस बार खुद ओल्ड मैसूर क्षेत्र की चामुंडेश्वरी सीट के साथ-साथ हैदराबाद-कर्नाटका क्षेत्र की बादामी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। जबकि अपने पुत्र डॉ. यतींद्र को अपनी परंपरागत सीट वरुणा से लड़वा रहे हैं। लेकिन भाजपा के तगड़े चक्रव्यूह के कारण वह इन तीनों सीटों पर समय नहीं दे पा रहे हैं। सिद्धारमैया स्वयं वरुणा सीट से लंबे समय से चुनाव लड़ते आ रहे हैं। लेकिन इस बार अपने डॉक्टर पुत्र यतींद्र की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा पूर्ण करने के लिए उन्होंने अपनी मजबूत सीट वरुणा से उसे उम्मीदवार बनाया और खुद के लिए वरुणा की पड़ोसी सीट चामुंडेश्वरी चुना।2005 में जनतादल (से.) से निकाले जाने के बाद विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर सिद्धारमैया इसी चामुंडेश्वरी सीट से उपचुनाव में जीतकर पुनः विधानसभा पहुंचे थे। लेकिन तब भी उनकी जीत सिर्फ 257 मतों से हुई थी। लिंगायत, वोक्कालिगा, कुरुबा एवं नायक समुदायों की मिलीजुली आबादी वाले चामुंडेश्वरी क्षेत्र से सिद्धारमैया ने इस बार पर्चा भरते समय सोचा था कि वह वरुणा एवं चामुंडेश्वरी में एक साथ प्रचार कर स्वयं अपनी एवं बेटे की जीत आसानी से सुनिश्चित कर लेंगे। लेकिन इसी सीट से अतीत में अपनी कमजोर जीत का अंतर देखते हुए सिद्धारमैया ने एक और सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया और हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र की बादामी सीट से भी पर्चा भर दिया।बादामी सीट को सिद्धारमैया अपने लिए सुरक्षित मान रहे थे, क्योंकि वहां मुस्लिम, कुरुबा, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों की बहुलता है। इन्हीं जातियों-समुदायों को अपने साथ जोड़ने के लिए सिद्धारमैया ने 2005 में ‘अहिंद’ नामक संगठन बनाया था। वह इस सीट से अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे थे। लेकिन भाजपा ने इस सीट से अपने मजबूत एससी-एसटी नेता एवं वर्तमान सांसद श्री रामुलू को बादामी से मैदान में उतारकर सिद्दारामैया की परेशानी बढ़ा दी है। हालांकि श्री रामुलू खुद भी एक और सीट मोलकारमुरू से पहले ही पर्चा भर चुके थे। लेकिन भाजपा ने सिर्फ सिद्धारमैया को मुश्किल में डालने के लिए श्रीरामुलू को बादामी से भी उतार दिया है।
अल्पसंख्यक, पिछड़ों और दलितों का नेता बनने की चाह
सिद्धारमैया को लंबे समय तक जनतादल (से.) में देवेगौड़ा के बाद नंबर दो का नेता माना जाता था। वह रामकृष्ण हेगड़े की कैबिनेट में भी मंत्री रहे हैं। तब जनतादल का बंटवारा नहीं हुआ था। फिर देवेगौड़ा के मुख्यमंत्री रहते वह कर्नाटक के वित्तमंत्री रहे। 2004 में बनी कांग्रेस-जनतादल (से.) की साझा सरकार में भी वह वित्तमंत्री रहे। उसी दौरान कांग्रेस ने उनपर डोरे डालने शुरू किए। क्योंकि सिद्धारमैया उसी दौरान एक सामाजिक संगठन ‘अहिंद’ बनाकर मुसलमान, पिछड़ा वर्ग एवं दलितों का नेता बनने की कवायद शुरू कर चुके थे।इन वर्गों ने सिद्धारमैया को अपना नेता मानना शुरू भी कर दिया था। यानी देवेगौड़ा के सेक्युलर वोटबैंक में सिद्धारमैया ने ‘अहिंद’ के जरिए सेंध लगा दी थी। देवेगौड़ा को यह नागवार गुजरा और उन्होंने 2005 में सिद्धारमैया को जनतादल (से.) से बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस को कर्नाटक में इन वर्गों में पैठ रखनेवाले एक दबंग नेता की जरूरत थी। जनतादल (से.) से निकाले जाने के कुछ समय बाद ही सिद्धारमैया कांग्रेस में शामिल हो गए थे। लेकिन कांग्रेस के पुराने दलित नेताओं के विरोध के कारण उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया गया। यह और बात है कि सिद्धारमैया कांग्रेस में रहते हुए अपनी जड़ें मजबूत करते रहे। जिसके परिणामस्वरूप 2013 में वह कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए मुख्यमंत्री पद तक जा पहुंचे।