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रोटी की खातिर बच्चे रखे जा रहे गिरवी,मजबूरी का फायदा उठा रहे दलाल और कारोबारी

उदयपुर। राजस्थान के मेवाड़-वागड़ इलाके में आदिवासियों को भोजन के लाले पड़ गए हैं। आलम यह है कि लोग दो वक्त की रोटी की खातिर लोग खुद को ही नहीं, बल्कि बच्चों तक को गिरवी रख रहे हैं। इस मामले में पुलिस ने तो कार्रवाई किए जाने की बात कही है, मगर महिला एवं बाल विकास विभाग को शिकायत मिलने का इंतजार है। यह अलग बात है कि विभाग के संज्ञान में समूचा मामला है, मगर उसने कोई कार्रवाई नहीं की। लिंबोड़ी गांव के रमिया खडि़या हों या चुडई गांव के हीरालाल, दोनों के ही परिवार के हालात एक जैसे हैं। जिस दिन काम मिल जाए तो भोजन मिल जाता है, नहीं मिला तो भूखा रहना होता है। ऐसे ही हालात मेवाड़-वागड़ के कमोवेश सैकड़ों आदिवासी परिवारों के हैं। ये गांव अरावली की उजाड़ पहाडि़यों के बीच बसे हुए हैं। इन परिवारों के भरण- पोषण का एकमात्र जरिया मजदूरी ही है। काम नहीं मिलने पर भूखे मरने की नौबत से बचने और परिवार की दो वक्त की रोटी के लिए मुखिया खुद या परिवार के किसी सदस्य, जिनमें बच्चे भी शामिल होते हैं, को गिरवी तक रख देता है। इसके बदले इनको मामूली रकम मिलती है।

भुखमरी के हालात भीषण गर्मी में काम नहीं मिलने से इन दिनों उदयपुर संभाग के प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर के साथ उदयपुर के कई आदिवासी परिवारों में भूखमरी के हालात हैं।

एक मुश्त रकम दे कर ले जाते हैं बच्चे प्रतापगढ़ जिले के रमिया खडि़या बताते हैं कि इन दिनों काम नहीं मिल रहा है। गांव के ज्यादातर बच्चे और युवा दलालों के माध्यम से बाहर काम करने गए हैं। इसके एवज में उनके परिवारों को मिली एकमुश्त राशि उनके भरण-पोषण के लिए सहारा बनती है। इस तरह की पीड़ा भोग चुके कुछ आदिवासियों ने बताया कि समस्या दशकों पुरानी है। महाराष्ट्र और गुजरात के कारोबारियों से वे एकमुश्त राशि लेकर उनके यहां काम करते हैं। इसी तरह बच्चों को भी ऐसे कारोबारियों के यहां भेजने की परंपरा शुरू हो गई है।

मजदूरी ही एक मात्र सहारा  बंजर पहाडि़यों के बीच बसे गांवों में कृषि योग्य भूमि नहीं है। पहाड़ी के बीच 100-200 वर्ग फीट समतल जमीन मिल गई तो वहां साल में एक बार मक्का की फसल ही होती है। यह कुछ महीनों के जीवन यापन के लिए ही पर्याप्त होती है। ऐसे में लोगों के पास मजदूरी करना ही एक मात्र विकल्प होता है।

निरक्षरता का उठाते हैं लाभ  न्यूनतम मजदूरी पर श्रमिक उपलब्ध कराने के लिए कुछ लोगों ने दलाली शुरू कर दी है। आदिवासियों की निरक्षरता, मजबूरी और मेहनतकश होने का लाभ दलालों ने उठाना शुरू कर दिया है। मारवाड़ और मध्य प्रदेश के गड़रिये भी यहां से बच्चे ले जाने लगे हैं।

गड़रिये करने लगे बच्चों को परेशान  नाम नहीं बताने की शर्त पर एक दलाल ने बताया कि कारोबारियों के व्यापारिक संस्थानों में काम करने के बाद मजदूरों को आराम का वक्त मिल जाता है, परंतु गड़रिये गिरवी रखे गए बच्चों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते। उनसे दिनभर चरवाहे के रूप में काम लेते हैं। जब आराम का वक्त होता है तब उनसे पानी लाने से लेकर खाना पकाने तक का काम करवाया जाता है।

बच्चों का लौटना मुश्किल  गिरवी रखे बच्चे चाहकर भी अपने घर लौट नहीं पाते। वैसे भी उनका कारोबारियों और गड़रियों के चंगुल से बचना मुश्किल होता है और यदि वे वहां से निकल भी जाते हैं तो वे अपने घर का पूरा पता ही नहीं बता पाते। यदि गांव पता है तो तहसील या जिला ही नहीं बता पाते, इसलिए उनका घर लौटना मुश्किल होता है। कुछ बच्चे घर लौट आने में सफल रहे, लेकिन अब वह अपने परिजन के साथ रहना नहीं चाहते। महिला एवं बाल विकास विभाग बांसवाड़ा पार्वती कटारा ने बताया कि यह चर्चा में आया था कि कुछ बच्चों को गिरवी रखा गया, लेकिन विभाग को किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिली। उदयपुर रेंज के आइजी प्रफुल्ल कुमार ने कहा कि बच्चों के गिरवी रखे जाने की बात सामने आने पर बांसवाड़ा पुलिस ने एक दलाल को पकड़ा है। उससे पूछताछ जारी है। बच्चों को काम पर ले जाने के मामले में पुलिस समय-समय पर कार्रवाई करती रही है।

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