रेल हादसों को न्यौता देतीं यें मानव बस्तियां
नई दिल्ली। रेलवे को देश की लाइफलाइन कहा जाता है लेकिन इसी रेलवे लाइन के किनारे सरपट दौड़ती जिंदगी की गाड़ी कब बेपटरी हो जाए इसकी फिक्र शायद ही किसी को हो। दशहरा पर्व के बीच पंजाब के अमृतसर में हुए रेल हादसे ने कई ऐसे सवालों को जन्म दे दिया है जिनके जवाब नहीं तलाशे गए तो शायद कल तक देर हो चुकी होगी। क्या यह कहना गलत नहीं होगा कि एक समाज के तौर पर हम खुद ही बेफिक्र हो चुके हैं और इस बुनियादी बात को भूल चुके हैं कि अपनी सुरक्षा हमारे की हाथ में ही है। ऐसा क्यों कहा जा रहा है और इसके पीछे क्या कारण है। इसी को बताने के लिए हम आपको परत दर परत वो तस्वीरें दिखाएंगे जहां जिंदगी हर पल मौत के साए में पलती है। रेल हादसों में हर साल न जाने कितने ही लोग काल का ग्रास बन जाते हैं। देश के किसी भी कोने की बात की जाए तो सुरक्षा का अंक शून्य को लापरवाही को पूरे नंबर दिए जा सकते हैं।
लगातार बढ़ती गई झुग्गियों की संख्या सबसे पहले आपको दिल्ली-एनसीआर की वो तस्वीर दिखाते हैं जिसे देखने के बाद आपको अंदाजा हो जाएगा कि रेल हादसों के लिए हम खुद कितने जिम्मेदार हैं। कैसे रेल की पटरियों के बीच जिंदगी सांस ले रही है। दिल्ली में रेलवे की जिस जमीन पर तीन साल पहले 45 हजार के करीब झुग्गियां बसी थीं आज उनकी संख्या 60 हजार के करीब पहुंच गई है। इनमें तकरीबन 33 हजार झुग्गियां तो ऐसी हैं जो रेलवे लाइन के बेहद करीब हैं। जिससे शताब्दी और राजधानी सहित जो भी ट्रेनें गुजरती हैं उसकी रफ्तार धीमी करनी पड़ती है।
यहां पर बसी हैं सबसे ज्यादा झुग्गियां कीर्ति नगर, दिल्ली कैंट, शकूरबस्ती, दयाबस्ती, मायापुरी, जल विहार, तिलक ब्रिज, पुराना सीलमपुर, आजादपुर, मंगोलपुरी, नांगलोई शाहदरा इलाके में ही करीब 45 हजार झुग्गियां बसी हुई हैं जो कि रेल की रफ्तार पर ब्रेक लगा रही हैं। इन्हीं में वो 33 हजार झुग्गियां भी शामिल हैं जो रेलवे लाइन के संवेदनशील समझे जाने वाले दोनों तरफ की पन्द्रह-पन्द्रह मीटर जमीन में बसी हैं। कीर्तिनगर, दयाबस्ती, मायापुरी में तो रेलवे लाइन के ऊपर ही झुग्गी बसा दी गई है। यहां रेलवे अपनी पटरी तो नहीं बचा पाया उल्टे रेल जरूर चलानी बंद कर दी।
ये है लापरवाही का आलम रेलवे के ही आंकड़ों के मुताबिक रेलवे की जिस जमीन पर यह झुग्गी बस्तियां बसी हैं वह करीब छह लाख वर्ग मीटर के करीब है और किलोमीटर के हिसाब से इसका दायरा करीब 79 किलोमीटर है। रेलवे की जमीन पर सबसे अधिक अतिक्रमण उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में है और उसके बाद दूसरे नंबर पर उत्तरी जिला आता है। इन बस्तियों में सुविधाओं के नाम पर गंदगी और बोनस में बीमारियां ही मिलती हैं। लेकिन फिर भी जान की परवाह न कर लोग रेलवे की रफ्तार के साथ दौड़ लगाते जा रहे हैं।
बेहतर नहीं हैं मुंबई के हालात राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बाद देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के हालात भी कमोबेश बेहतर नहीं हैं। यहां भी रेलवे के साथ-साथ आम लोगों की सुरक्षा खतरे में है। एक तरफ जहां शहर का चमकता हुआ चेहरा नजर आता है तो वहीं, भाग-दौड़ से भरी जिंदगी वाले इस शहर में भी रेल पटरियों के किनाने अच्छी खासी आबादी बसी हुई है।
रफ्तार भरती है जिंदगी मुंबई ही नहीं, एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती ‘धारावी’ का नाम तो हम सबने सुना होगा। कई किलोमीटर में फैले इस इलाके में न जाने कितने ऐसे प्वाइंट हैं जहां रेल पटरियों से सटी झुग्गियों में रहने वाले लोगों ने रेलवे की रफ्तार के साथ कदम ताल मिलाना सीख लिया है। किसी भी अनहोनी की आशंका से दूर यहां जिंगदी की गाड़ी बे-धड़क दौड़ती है।
रेलवे किनाने बसेरा एक सर्वे के मुताबिक मुंबई में लगभर 52 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं। ऐसे में इस बात का अंजादा आसानी से लगाया जा सकता है कि जिंदगी की गुजर-बसर के लिए लोग किस हद तक जान को जोखिम में डालकर रेल की पटरियों के किनारे बसेरा बनाने से नहीं कतराते हैं। मुंबई में कई ऐसे इलाके हैं जहां जिंदगी रेल पटरियों के समानांतर ही दौड़ती नजर आती है।
पटरियों पर जिंदगी मुंबई के बाद देश के एक और महानगर कोलकाता की बात करें तो यहां हालात बेहद भयावह हैं। आलम यह है कि यहां कई इलाकों में रेल पटरियों के किनारे लोगों ने आशियाना बना रखा है। कई इलाकों में हालात यह हैं कि लोगों ने स्टेशन परिसर में बनी दीवारों के बीच खिड़कियां बना ली हैं और मजे से जिंदगी गुजार रहे हैं। बच्चों के खेलने के लिए भी कहीं दूर नहीं जाना पड़ता है, रेल की पटरियों के बीच ही पूरा संसार बसा है बस जरूरत है तो उस जेखिम को नजरअंदाज करने की जो कभी भी बड़ा हादसा बनकर सामने आ सकता है।
रेल पटरियां और जिंदगी यहां यह भी बता दें कि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास कार्यक्रम की मानव विकास रुपोर्ट-2009 में कहा गया है कि मुबई में 54.1 प्रतिशत, दिल्ली में 18.9, कोलकाता में 11.72 व चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं। इनमें से कई परिवार ऐसे भी हैं जो रेलवे की पटरियों के किनारे जीने को मजबूर हैं। कई लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने भले ही ट्रेन में सफर न किया हो लेकिन पूरी जिंदगी रेल पटरियों के किनारे गुजार दी है।
करना होगा काम गौरतलब है कि सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2014 में 5,300 किलोमीटर ट्रैक ‘रिन्यू’ होना था। रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि आधे से ज्यादा रेल हादसे बिना फाटक वाली रेल क्रॉसिंग पर होते हैं। राष्ट्रीय आपराधिक क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आकड़ों पर गौर करें तो साल 2014 में रेल दुर्घटनाओं में मारे गए लगभग 28,000 लोगों में से करीब 18,000 ट्रेन से गिरने या भिड़ने की वजह से मारे गए। अप्रैल 2014 में देश में 11,000 से अधिक ऐसे क्रॉसिंग थे जिनपर ‘फुट ओवरब्रिज’ और ‘सबवे’ बनाने का काम होना था, जो अभी तक पूरा नहीं हो सका है।