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दागियों और बाहुबलियों के भरोसे राजनीतिक दल, लोकतंत्र के लिए खतरा

गत दिवस केंद्र सरकार द्वारा सर्वोच्च अदालत में दाखिल हलफनामा से भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि देश के सियासी दलों में दागी माननीयों की भरमार है। दागी माननीयों के मामलों का निपटारा किया जाना इसलिए भी आवश्यक है कि संसद और विधानसभाओं में दागी और आपराधिक चरित्र वाले नेताओं की तादाद कम होने के बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। अगर ऐसे दागी माननीयों के मामलों का शीघ्र निपटारा नहीं होगा तो देशभर में यही संदेश जाएगा कि कानून की नजर में सभी बराबर नहीं हैं।
दागियों को मंत्री न बनाया जाए…
गत वर्ष पहले सर्वोच्च अदालत ने दागी माननीयों पर लगाम कसने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री एवं राज्य के मुख्यमंत्रियों को ताकीद किया था कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दागी लोगों को मंत्री पद न दिया जाए, क्योंकि इससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। तब सर्वोच्च अदालत ने दो टूक कहा था कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान की संरक्षक की हैसियत से प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को मंत्री नहीं चुनेंगे। लेकिन विडंबना है कि अदालत की इस नसीहत का पालन नहीं हो रहा है। हालांकि राजनीतिक दलों का तर्क है कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का अपना मंत्रिमंडल चुनने का हक संवैधानिक है और उन्हें इस मामले में कोई आदेश नहीं दिया जा सकता। ऐसा इसलिए भी कि संविधान के अनुच्छेद 75(1) की व्याख्या करते समय उसमें कोई नई अयोग्यता नहीं जोड़ी जा सकती।

कानून में नई अयोग्यता शामिल नहीं हो सकती
जब कानून में गंभीर अपराधों या भ्रष्टाचार में अभियोग तय होने पर किसी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य नहीं माना गया है तो फिर अनुच्छेद 75(1) और 164(1) जो केंद्रीय और राज्य मंत्रिमंडल के चयन से संबंध है, के मामले में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के अधिकारों की व्याख्या करते हुए उसे अयोग्यता के तौर पर शामिल नहीं किया जा सकता। वैसे भी उचित है कि विधायिका में न्यायपालिका का अनावश्यक दखल न हो। अगर ऐसा होगा तो फिर व्यवस्था बाधित होगी और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचेगा, लेकिन इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि विधायिका दागी जनप्रतिनिधियों को लेकर अपनी आंख बंद किए रहे और न्यायपालिका तमाशा देखे। यहां ध्यान देना होगा कि दागी माननीयों को लेकर सर्वोच्च अदालत कई बार सख्त टिप्पणी कर चुका है, लेकिन हर बार देखा गया कि राजनीतिक दल अपने दागी जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए कुतर्क गढ़ते नजर आए।

जितना बड़ा दागी, जीतने भी भी उतनी ही उम्मीद

अब चूंकि केंद्र सरकार ने दागी जनप्रतिनिधियों के मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालत के गठन को हरी झंडी दिखा दी है ऐसे में राजनीति के शुद्धीकरण की उम्मीद बढ़ गई है। अगर दागी माननीयों पर कानून का शिकंजा कसता है तो फिर राजनीतिक दल ऐसे लोगों को चुनावी मैदान में उतारने से परहेज करेंगे। दरअसल राजनीतिक दलों को विश्वास हो गया है कि जो जितना बड़ा दागी है उसके चुनाव जीतने की उतनी ही बड़ी गारंटी है। हैरान करने वाली बात यह है कि दागी चुनाव जीतने में सफल भी हो रहे हैं, लेकिन यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है, परंतु इसके लिए सिर्फ राजनीतिक दलों और उनके नियंताओं को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, जनता भी समान रूप से जिम्मेदार है।

हमारी भी यह जिम्मेदारी है…
जब देश की जनता ही साफ-सुथरे प्रतिनिधियों को चुनने के बजाय जाति और धर्म के आधार पर बाहुबलियों और दागियों को चुनेगी तो स्वाभाविक रूप से राजनीतिक दल उन्हें टिकट देंगे ही। देश की जनता को समझना होगा कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में नेताओं के आचरण का बदलते रहना एक स्वाभावगत प्रक्रिया है, लेकिन उन पर निगरानी रखना और यह देखना कि बदलाव के दौरान नेतृत्व के आवश्यक और स्वाभाविक गुणों की क्षति न होने पाए, जनता की जिम्मेदारी है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक तरक्की के लिए जितनी सत्यनिष्ठा राजनेताओं में होनी चाहिए उतनी ही जनता में भी।

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