सियासी संकट ने माया को किया मुलायम, कड़वी यादें भूल सपा को समर्थन
सियासत में वैसे तो हर एक घटना और दिन महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन 2014 के साल को वाटरशेड की संज्ञा दिया जाए तो कुछ गलत न होगा। 2014 के आम चुनाव के नतीजों ने न केवल केंद्रीय स्तर पर राजनीति की तस्वीर को बदला दिया बल्कि राज्यों के चुनावों को काफी हद तक प्रभावित किया। कुछ खास इलाकों में राज कर रही भाजपा का फैलाव अब देश के करीब 74 फीसद भूभाग पर हो चुका है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावी नतीजों के बाद विरोधी दलों ने अपने अपने अंदाज में जहां मोदी सरकार को कोसा वहीं अपने बचाव में कई तर्क पेश किए।
केसरिया रंग का खौफ विपक्षी दलों में इस कदर धर चुका है कि सामान्य सोच के उलट बसपा प्रमुख मायावती ने गोरखपुर और फूलपुर संसदीय चुनाव में सपा के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा के साथ 2019 की चुनावी गठबंधन की संभावनों को हकीकत में बदलने का रास्ता तय कर दिया। इसके साथ ही कांग्रेस ने माकपा के साथ अपने संबंधों को नई दिशा देने की योजना पर बल दिया है। लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या अंतर्विरोधों से आबाद ये दल या नेता राजनीति की महासागर में अपनी कश्ती को खे पाने में कामयाब हो सकेंगे।
कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ विरोध
1990 के दशक में भारतीय राजनीति में एक बड़े बदलाव से गुजर रही थी। कांग्रेस की स्थापित सत्ता के खिलाफ अलग अलग इलाकों में पार्टियां अपने दमखम पर भारतीय राजनीति की क्षितिज पर दस्तक देने को तैयार थीं। उनमें से ही एक थी बसपा और जनता दल के विघटन के बाद समाजवादी पार्टी का उदय हुआ। सामाजिक न्याय को तत्कालीन पीएम वी पी सिंह ने कानून की शक्ल दी थी जो राजनीतिक तौर पर सपा-बसपा गठबंधन के तौर पर यूपी में इतिहास लिखने को तैयार था। 1993 के विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की आंधी में भाजपा और कांग्रेस का सफाया हो गया। लेकिन दो साल बाद ही स्थितियां बदलने लगी थीं। जिन वंचित वर्गों की दुहाई देकर सपा और बसपा एक साथ आए वो मुद्दे मुलायम सिंह यादव और मायावती की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गए। इसके साथ ही भारतीय राजनीति और यूपी की राजनीति बदरंग होने का इंतजार कर रही थी।
2 जून 1995 के बाद सपा-बसपा की राह हुई अलग
बसपा द्वारा सपा सरकार से अलग होने के बाद 2 जून 1995 को लखनऊ में मीरा बाई मार्ग स्थित गेस्टहाउस के कमरा नंबर 1 में उस पटकथा को अंजाम दिया जा रहा था जिसमें मायावती की जान जाते जाते बची थी।लेकिन इतिहास के पन्नों में काले अक्षरों में दर्ज गेस्ट हाउस कांड डरावनी स्मृति मायावती के दिमाग में कुछ इस तरह धर कर गई कि उनके लिए समाजवादी पार्टी उस अछूत की तरह हो गई जिसे देखना तक उन्हें गवारा न था। लेकिन कहते हैं कि राजनीति बहते हुए पानी की तरह है, जिसने उस बहाव को नियंत्रित कर लिया वो सत्ता के शिखर पर पहुंचा और जो ऐसा करने में नाकाम रहा वो महासागर की अथाह जलराशि में विलीन हो गया।
2000 के बाद बड़े पैमाने पर बदलाव
2000 के बाद गुजरात की राजनीति में एक शख्स अवतरित हुआ जिसका नाम था नरेंद्र मोदी। एक राजनीतिक शख्स जिसे आतंक का सौदागर कहा गया, उसके हाथों को खून से सना बताया गया वो एक लंबी पारी खेलने को तैयार था। 2004 में इंडिया शाइनिंग के स्लोगन के जरिए भाजपा का सत्ता में वापसी का सपना हकीकत में तब्दील न हो सका। ऐसे में पार्टी के रणनीतिकारों को लगने लगा था कि अब एक ऐसी ठोस रणनीति के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है जिसके जरिए कांग्रेस मुक्त भारत का सपना साकार हो सके। यूपीए दो की नाकामियों के बाद भाजपा को नरेंद्र मोदी के रूप में एक ऐसा शख्स नजर आया जो कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर सकती थी। और 2014 के चुनाव में कुछ ऐसा ही हुआ। 1984 के बाद एक अकेली पार्टी केंद्र की सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई और इसके साथ ही क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व पर संकट उठ खड़ा हुआ।
जब बसपा हो गई साफ
देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में सामाजिक आंदोलन और दलित चेतना का राग अलापने वाली पार्टी बसपा का सूपड़ा साफ हो चुका था। कांग्रेस और सपा के वही सदस्य चुनाव जीतने में कामयाब हुए जो खास परिवारों से जुड़े थे। यही वो समय था जिसने विपक्षी दलों को बेचैन कर दिया। राज्य स्तरीय चुनावों में एक के बाद एक भाजपा की जीत के बाद विपक्षी दल तमाम तरह के आरोप लगाने लगे। जैसे उदाहरण के लिए इवीएम में सेटिंग के जरिए भाजपा चुनाव में अपने झंडे गाड़ रही है। लेकिन यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव का नतीजा न केवल राजनीतिक दलों के लिए अप्रत्याशित था बल्कि राजनातिक विश्लेषक भी हैरान थे कि आखिर ये सब कैसे हुआ। भाजपा ने ऐतिहासिक विजय हासिल की और इसके साथ ही सपा बसपा और कांग्रेस के लिए चिंतन मनन के अलावा और कुछ नहीं बचा। चुनावी नतीजों के तुरंत बाद सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा था कि सांप्रदायिक भाजपा को हराने के लिए वो बुआ यानि मायावती के साथ चलने को तैयार है ये बात अलग है कि मायावती ने इस संभावना को सिरे से दरकिनार कर दिया। मायावती अपनी चाल चलती रहीं। उन्हें उम्मीद थी कि गुजरात और देश के दूसरे हिस्सों में दलितों पर अत्याचार का मामला उठाकर वो अपनी प्रांसगिकता को बनाए रखने में कामयाब हो सकेंगी। इसके लिए उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा देकर एक बड़ा दांव खेला लेकिन जमीनी स्तर पर उनकी ये रणनीति कामयाब होती नहीं दिखी।
2019 का चुनाव और सियासी समीकरण
अब जबकि 2019 का चुनाव नजदीक आ रहा है और भाजपा का विजयी घोड़ा देश के सभी हिस्सों में बिना किसी बाधा के दौड़ रहा है दूसरे सियासी दलों को लग रहा है कि अगर अब किसी तरह की चूक हुई तो वो नेपथ्य में चले जाएंगे।यूपी के गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव के जरिए विपक्षी दल भाजपा को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि अब लड़ाई एकतरफा नहीं होगी। मायावती ने जब कहा कि वो इन दोनों जगहों के उपचुनाव में मजबूत उम्मीदवार को समर्थन देंगी तो इशारा साफ था कि वो सपा के उम्मीदवार को अपनी समर्थन देने जा रही हैं और करीब 23 साल पहले उस कड़वी याददाश्त को भूल जाना चाहती हैं जिसमें उनकी जिंदगी के लिए सपा के विधायक और कार्यकर्ता खतरा बनकर स्टेट गेस्ट हाउस में मंडरा रहे थे। इसके साथ ही राज्यसभा की सीट के लिए उन्होंने कांग्रेस को मोलभाव का विकल्प दिया जिससे उनकी प्रासंगिकता बनी रहे। लेकिन क्या ये दांव कामयाब हो पाएगा क्योंकि 1990, 2000 से लेकर अब तक भारत बदल चुका है।
‘सबका साथ, सबका विकास’ को क्या मिल पाएगी चुनौती
पीएम मोदी अपने सभी भाषणों में सबका साथ, सबका विकास पर बल देते हैं, वो कहते हैं हम न्यू इंडिया बनाना चाहते हैं वो कहते हैं कि वो महिलाओं के लिए समान अधिकार की बात करते हैं, वो कहते हैं कि जो कामकाजी महिलाएं आज तक चुल्हे के धुएं का शिकार थीं उन आंखों में आंसू नहीं देखना चाहते हैं, वो कहते हैं कि देश के किसान की केवल एक ही पहचान है कि वो मेहनतकश है,वो कहते हैं कि देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को चाहे वो किसी समुदाय से ताल्लुक रखता हो उसे स्वास्थ्य सुविधाओं की जरूरत है। वो कहते हैं कि 2000 के बाद पैदा हुआ हर एक बच्चा नई पहचान के साथ भारत को आगे ले जाना चाहता है। ऐसे में ये सवाल मौजूं रहेगा कि क्या बसपा प्रमुख अपनी पारंपरिक रणनीति के जरिए वो मुकाम हासिल कर सकेंगी जो करीब ढ़ाई दशक पहले भारतीय राजनीति में अपरिहार्य शख्स के तौर स्थापित हो चुकी थीं।