Uttarakhand

किसान आंदोलन तो ठीक लेकिन इसका प्रबंधन आश्चर्यचकित कर देने वाला है

पिछले अठाइस दिन से किसानों ने आंदोलन किया हुआ है। यह संतोष की बात है कि आंदोलन कुछ छिटपुट हरकतों के अलावा बेहद शांति पूर्ण है। सबसे पहले तो आदोलन का प्रबंधन आश्चर्य चकित कर देने वाला है। आम किसानों के लिये यह ऐसा संभव नही है। यह प्रबंध सेना और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बाद देश भर में किसी संगठन के बस की बात नहीं है। निष्चय ही देश को हिला देने वाले इस आंदोलन की रूप रेखा और योजना के पीछे किसी बड़ी एजेंसी का हाथ है। मैं यह मानने को तैयार नही हूँ कि हमारे देश का किसान इतना ज़िद्दी हो सकता है या उसे बिना किसी परवाह महीनों कड़ाके की सर्दी में सड़क पर बैठने की फुरसत है। युवा किसान अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे है। किसी को सरकार से भी राजनीतिक द्वेष नजर नही आता इसलिये निश्चित रूप से कुछ राजनीतिक ताकते है जो समस्या के समाधान मे बाधक बनकर अपना खेल खेल रही है।उन्हें देश और देश के किसानों की परवाह नही बल्कि अपने एजेंडे और विकास शील सरकार को कमजोर करने की चिंता है। देश मे अपने अस्तित्व की फिक्र है।स्थिति कुल मिलाकर चिंता जनक बनी हुई है। देशहित में दोनों पक्षो को अपनी जिद और मूंछ की लड़ाई छोड़कर गंभीरता और खुले मन से विचार करना चाहिए। किसानों को कानूनों को वापस लेने जैसी अव्यवहारिक मांग से हटकर अपनी समस्याओं के समाधान की बात करनी चाहिए। कानून को वापस करने से सरकार से विस्वाश हट कर संवैधानिक संकट उत्पन्न होता है। किसान भाई एक बार सोंचे कि क्या वह चाहते है कि कल कश्मीर की जनता धारा 370 को लेकर सड़क जाम करे या एक वर्ग नागरिकता कानून को लेकर फिर शाहीन बाग बना दे। सरकार की भी कुछ सीमायें होती है। और फिर चंद बडे किसानों के लिये या मंडी के दलालों के लिये देश के छोटे किसानों और अन्य छेत्रो के हितों को ताक पर नही रखा जा सकता। इसलिये वार्ता को समस्या विशेष तक सीमित रखना ही उचित मार्ग है।
     यह देखा गया है कि देश मे तथाकथित कानून पर भरम की स्थिति बनी हुई है। न ही किसान अपनी समस्या को जनता को समझा पा रहे है बस कानून वापस लेने की मांग पर अड़े है। उन्हें बताना चाहिए कि किसानों को किस प्रकार हानि हो रही है और केवल उन्ही बिंदुओं पर वार्ता करनी चाहिए।
      जनता और किसानों के बड़े वर्ग में भी कुछ शंकाएं उभर रही है। आखिरकार कही न कही सभी प्रभावित हो रहे है। जनता की और से किसान नेताओ से कुछ प्रश्नों पर स्पष्टिकरण चाहता हूँ।
1 किसान को अपनी फसल देश में कहीं भी अपनी शर्तों पर अपनी इचछा से बेचने में क्या आपत्ति है। इससे किसानों को रेट के अलावा लगभग 20 प्रतिशत खर्चो की भी बचत होगी और भुगतान भी तुरंत होगा। मंडी का भी अवसर यथावत रहेगा।
2 कानून से पूर्व केवल सैन्य कर्मचारियों और विधवाओं को ही कृषि अनुबंध के आधार पर कराने की अनुमति थी।अन्य के केस में भूमि पंचायत में निहित किये जाने का प्राविधान था। ऐसे में लघु किसान न तो कम जोत में अपना खर्च पूरा कर सकता था और न ही किसी और से खेती करा सकता था नतीजतन उसे अपनी कृषि भूमि बडे किसानों को बेचनी पडती थी। इस कानून के बाद वह स्वयं सहायता ग्रुप बनाकर या व्यक्तिगत रूप से अन्य किसान से खेती करा सकता है।इस प्रकार उसे जीवन सुगम बनाने का ऐच्छिक अधिकार दिया गया है। इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ?
3 न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार लगभग 12 प्रतिशत फसल ही खरीद पाती है। शेष फसल खुले बजार बिकती है
 यदि बड़े व्यापारी फसल नही ख़रीदे और उचित भंडारण न करे तो किसानों की फसल या तो खलिहान में सड जायेगी अथवा आढ़ती को औने पौने दाम पर बेचनी पडेगी। फिर भी ईस बिंदु पर संशय हो सकता है। बड़े व्यापारी अपनी शर्त पर फसल खरीदने का दबाव बना सकते है। दूसरे स्टॉक की सीमा न होने से बिक्री के समय मुनाफा खोरी का अंदेशा बना रहेगा और बाजार में दाम बढ़ने से आम उपभोक्ता को परेशानी हो सकती है। अतः सरकार को चाहिए कि किसानों की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदे जाने की व्यवश्था करे साथ ही अवश्यकता पड़ने पर स्टॉक को पूर्व निश्चित अधिकतम दाम पर जनता को उपलब्ध कराने की व्यवस्था निश्चित कर दे तो समस्या का समाधन संभव है।
एक और रास्ता है कि कानून को अगले छह माह तक राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया जाय और इस बीच स्थिति के मूल्यांकन के लिये विशेसगयो की समिति गठित कर दी जाय जिसमे किसानो के प्रतिनिधि भी सभी राज्यो से शामिल किये जाय। तत्पश्चात समीक्षा कर कानून संशोधित कर दिया जाय।
     किसी भी दशा में कानून को एकतरफा वापस लिया जाना देश को मुश्किल में डालना होगा। किसान भाई देश हित मे गंभीरता से विचार करें। देश है तो हम है। देश कानून से चलता है हठधर्मी से नही फिर वह सरकार की हो अथवा किसी वर्ग की।
लेखकः-ललित मोहन शर्मा

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