किसान आंदोलन और सरकार
किसान आंदोलन पंजाब से चलकर जोर पकड़ता दिल्ली तक पहुँच गया है। आम जनमानस को एम एस पी के अलावा कुछ भी सुनने को नही मिलता। वास्तव में सच की गति धीमी और अफवाह की गति तूफान की तरह होती है। सरकार बार बार कह रही है कि किसान कानून किसानों के हित में है और सरकार की घोषित नीति के अनुसार ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन ऐसा होता नजर नही आता। धान की खरीद में सरकारी एजेंसियों की गड़बड़ और निर्धारित रेट से काफी कम दाम में धान बेचने की किसानों की मजबूरी यह दर्शाती है कि कही तो कुछ गड़बड़ है। सरकार की घोषणा दूर दूर तक धरातल पर दिखाई नही देती उसपर सरकार का उदासीन रवैया आंदोलन को उग्र होने का कारण बन सकता है। धीरे धीरे आंदोलन पूरे देश मे जोर पकड़ने की राह पर चल रहा है। किसान मर रहे है और मरता इंसान पीछे नही हटता। उसे मृत्यु का भी भय नही होता। इसलिये सरकार को इस आंदोलन को हल्के में नही लेना चाहिए और न ही अपने किये कराये पर पानी नही फेरना चाहिये। अगर सरकार की नीति स्पष्ट है और नियत किसानों के हित में है तो सरकार को ईमानदारी से आगे आकर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और यदि वास्तव में कही कुछ किसान विरोधी है तो बिना देर किए ऐसे प्राविधान को वापस ले लेना चाहिए। प्रधान मंत्री के बार बार वक्तव्य और उनकी चिर परिचित धरना से लगता है कि समस्या इतनी गंभीर नही है जितनी बताई जा रही है। सक्रिय होती दलगत राजनीति के कारण समस्या को उग्र रूप दिए जाने का खतरा भी कम नही है नतीजतन देश को बहुत बड़ा नुकसान होने की संभावना से भी इंकार नही किया सकता। यह सही है कि देश का किसान मूलतः भोला होता है उसे बहलाना बहुत कठिन नही होता। अतः आवश्यक है कि सरकार बिना देर किए बिना शर्त किसानों के बीच जाय और स्थिति स्पष्ट करे अन्यथा उनकी मांग स्वीकार कर ले। इसमें किसी प्रकार का गरूर नही होना चाहिए। किसी प्रकार की देरी सरकार की छवि धूमिल करेगी।
लेखकः-ललितमोहन शर्मा