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कारगिल में लड़ाई के समय मात्र 500 मीटर की दूरी पर थे पिता व पुत्र, मगर फर्ज के आगे मुलाकात ठुकराई

हिसार । जब कारगिल युद्ध हो रहा था तो मेरी उम्र साढ़े अठारह साल थी और मैं बरेली में 18- जाट रेजीमेंट में तैनात था। 16 जून को कारगिल जाने का आदेश हुआ। पड़ाव पार करते हुए हम कारगिल पोस्‍ट के नजदीक पहुंचे। फायरिंग प्‍वाइंट पर 70-जाट रेजीमेंट में तैनात 40 वर्षीय पिता महावीर सिंह दुश्‍मनों से लोहा ले रहे थे। हर तरफ गोलियां चलने की आवाज आ रही थी। बात चार जुलाई की है, हम पहाड़ की ऊंचाई पर जाने ही वाले थे। जब पिता की रेजीमेंट से एक हवलदार मिले और उन्‍होंने पिता के सलामत होने की बात कही। पांच जुलाई को जयपाल सूबेदार मिले और पिता का हाल-चाल पूछा। मन में शंका हुई, जब 6 जुलाई को सीओ ने मुझे बुलाया तो मैं अनहोनी को समझ गया, पिता पांच जुलाई को ही शहीद हो चुके थे। इतना कहते ही हरियाणा के हिसार जिले के घिराय गांव निवासी और सेना में रहे करण सिंह बूरा भावुक हो गए। फिर हिम्‍मत जुटाते हुए रूंधे गले से कहा कि मैं पिता के पार्थिव शरीर के साथ सात जुलाई को श्रीनगर पहुंचा, पोस्‍टमार्टम होने के बाद आठ जुलाई को दिल्‍ली और नौ जुलाई को पिता महावीर सिंह का अंतिम संस्‍कार हुआ। कई गावों के लोग श्रद्धांजलि देने पहुंचे थे, गर्व से सिर ऊंचा हो गया था। आज भी भारत माता की जय के नारे कानों में गूंजते हैं।

मुलाकात नहीं हाेने का आज तक मलाल, शहादत पर गर्व  करण सिंह ने बताया पिता के साथियों से पता चला कि उन्‍हें मेरे कारगिल पहुंचने की जानकारी हो गई थी। चार जुलाई को पिता ने मुझसे मिलने की इच्‍छा भी जताई, मगर गोलाबारी करने और देश सेवा की खातिर उन्‍होंने पोस्‍ट नहीं छोड़ने का फैसला लिया। वो मुझसे मिलने नहीं आए। उस वक्‍त मैं उनसे महज 500 मीटर की दूरी पर था। आज भी उनसे आखिरी मुलाकात नहीं हो पाने का मलाल है। मगर उन्‍होंने बेटे से मिलने की बजाय देश सेवा को प्राथमिकता दी ये सोचकर सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। पार्थिव शरीर के साथ कई घंटों के सफर के दौरान मैं यही सोच रहा था कि मां जावित्री देवी और छोटे भाई सुनील और बहन को क्‍या बताऊंगा, मगर घर पहुंचा तो उन्‍हें यह जानकारी पहले ही मिल चुकी थी। बसने एक दूसरे की ओर देखा तो बस आंखों में आसुंओ का सैलाब था। मेरी जुबान

चार पीढि़यों से देश सेवा कर रहा परिवार  करण सिंह बूरा ने कहा उनके परदादा मोर सिंह भी आर्मी में सूबेदार के पद पर थे। उनके बाद दादा भजनलाल भी सिपाही पद पर आर्मी में रहे। फिर पिता महाबीर सिंह  और चाचा बलबीर सिंह ने आर्मी ज्‍वाइन की। चाचा सूबेदार रहे तो पिता हवलदार थे और सूबेदार बनने वाले थे। उन्‍होंने पिता महाबीर सिंह की शहादत के पांच साल बाद उनके चाचा बलबीर का बेटे को भी आर्मी में भेज दिया। करण सिंह ने कहा मैंने मां की तबीयत ठीक नहीं रहती थी, सन 2000 में शादी हुई। 2002 में वीआरएस ले ली। मगर मैं मेरी बेटी और बेटे को सेना में ही भेजूंगा।

संभाल कर रखी है 20 साल पुरानी चिट्ठी  करण सिंह ने बताया कारगिल युद्ध के दौरान पिता द्वारा लिखी हुई चिट्ठी आज भी उन्‍हाेंने संभाल कर रखी हुई है। पिता की ये आखिरी निशानी मां के पास ही रहती है। पिता के वहां रहते हुए मैं सेना में भर्ती हुआ, कारगिल के बाद संसद में हमला होने के बाद पाक से तनाव बढ़ने पर मैंने बीकानेर पोस्‍ट पर भी मोर्चा संभाला। तब भी मां ने हिम्‍मत नहीं हारी और बस देश सेवा की बात कहती थी। पिता की शहादत के बाद सेना मेडल भी मिला, मगर जिला सैनिक बोर्ड में इसे दर्ज नहीं किया गया है। पूछे जाने पर कहते हैं मेडल दर्ज करवाने में देरी की, इस बात का दुख है कि देश के लिए प्राण न्‍यौछावर करने वालों के साथ ऐसा व्‍यवहार किया जाता है।

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