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वनों के संरक्षण को वन आधारित उत्पादों को आजीविका से जोड़ना जरूरीः प्रो. मौखुरी

अल्मोड़ा। गोविन्द बल्लभ पन्त राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान, कोसी-कटारमल, अल्मोड़ा में “वन आधारित संसाधन और आजीविका विकल्प” विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला-सह-विचार-मंथन का आयोजन किया गया. इस कार्यशाला का आयोजन गोविन्द बल्लभ पन्त राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान ने उत्तराखंड राज्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद, देहरादून एवं नेशनल मिशन फॉर सस्टेनिंग द हिमालयन इकोसिस्टम (निमशी) टास्क फोर्स 3, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग भारत सरकार के सहयोग से किया. कार्यशाला का उद्देश्य, उत्तराखंड पर केंद्रित भारतीय हिमालयी क्षेत्र में वन आधारित संसाधनों पर ज्ञान की वर्तमान स्थिति पर विचार-विमर्श करना, स्थानीय समुदायों की आय और आजीविका में वन संसाधनों की भूमिका को समझना एवं वन संसाधनों को आजीविका के स्रोत के रूप में उपयोग करने और उनके संरक्षण और प्रबंधन के लिए रणनीति विकसित करना था।
कार्यक्रम के उदघाटन सत्र को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथि डा० आर.के. मैखुरी, एच.एन.बी. गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर ने कहा कि वन्य संसाधनों का सतत उपयोग होना चाहिए तथा नयी तकनीको के माध्यम से इनका मुल्यसंवर्धन किया जा सके जिससे उसका सही बाजारी भाव प्राप्त किया जा सके। इसके के साथ उत्पाद का कॉस्ट बैनिफिट ऐनालिसिस और संसाधन उपलब्धता पर जोर दिया गया। उन्होंने कहा कि वनों के संरक्षण हेतु वन आधारित उत्पादों को आजीविका से जोड़ना जरूरी है तथा इसके लिए हिमालयी क्षेत्र में युवाओं को प्राकृतिक संसाधन आधारित रोजगार के अवसर प्रदान करने चाहिए जिससे पलायन को रोका जा सकता है और रिवर्स माइग्रेशन किया जा सकता है. उन्होंने इकोसिस्टम सर्विसेज के मूल्यांकन की आवश्कता पर बल दिया. एक गाँव का उदाहरण दे कर उन्होंने कहा कि किस तरह उस गाँव के लोग तिमला, बुरांश तथा पायोनिया प्रजातियों से निर्मित उत्पादों से अच्छी आमदनी प्राप्त कर रहे हैं।
कार्यक्रम के उदघाटन सत्र में संस्थान के निदेशक प्रो० सुनील नौटियाल जी द्वारा स्वागत संबोधन प्रेक्षित किया गया. उन्होंने कहा कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में वन आधारित संसाधनों तथा क्षेत्र में स्थानीय समुदायों की आय और आजीविका में वन संसाधनों की भूमिका को समझने के लिए गैर सरकारी संस्थानों और सरकारी शोध संस्थानों को एक साथ मिल कर कार्य करने की आवश्यकता है. तद्पश्चात उत्तराखंड राज्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद, देहरादून के वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी डा० आशुतोष मिश्रा ने परियोजना के बारे में प्रतिभागियों को विस्तृत जानकारी दी तथा उत्तराखंड पर केंद्रित भारतीय हिमालयी क्षेत्र में वन संसाधनों को आजीविका के स्रोत के रूप में उपयोग करने और उनके संरक्षण और प्रबंधन के लिए रणनीति विकसित करने हेतु वृहद् चर्चा करने की आवश्यकता पर बल दिया. कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा० आई०डी० भट्ट द्वारा प्रतिभागियों को कार्यक्रम की रूपरेखा तथा गतिविधियों की विस्तृत जानकारी दी गयी। कार्यशाला में तीन तकनीकी सत्र आयोजित किये गए. पहले सत्र का विषय “वन आधारित संसाधनों पर ज्ञान की वर्तमान स्थिति”, दूसरे सत्र का विषय “वन आधारित संसाधन और आजीविका विकल्प” तथा तीसरे सत्र का विषय “एन.टी.एफ.पी. की क्षमता के सतत दोहन के लिए रणनीतियां और आगे का रास्ता” था।
पहले तकनीकी सत्र की अध्यक्षता डा० जीत राम, प्रमुख, वानिकी विभाग, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल ने की. उन्होंने कहा कि सभी पादप सम्पदा की उसके आवास के आधार पर विस्तृत शोध करने की आवश्कता है तथा सभी प्रजातियों की वातावर्णीय परिस्तिथियों का अध्ययन भी होना जरूरी है. इस सत्र में डा० निरंजन रॉय, असम, प्रो. त्रिपाठी, मिजोरम, डा० मंजूर ए शाह, केयू श्रीनगर, डा० एल.एम. तिवारी, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल, डा० आई.डी. भट्ट, पर्यावरण संस्थान, कोसी-कटारमल, अल्मोड़ा, डा० आशुतोष मिश्रा, यूकोस्ट, तथा डा० सुमित पुरोहित, यू.सी.बी., उधम सिंह नगर ने पैनलिस्ट के रूप में प्रतिभाग किया. तकनीकी सत्र के दौरान प्रो. त्रिपाठी ने कहा कि वर्तमान में गुणवता आधारित शोध कार्यों की कमी है अतः इस पर ध्यान देने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि इकोसिस्टम सर्विसेस से जो हम लाभ ले रहे हैं हमें उसे वापस भी करना होगा. इसके लिए इकोसिस्टम सर्विसेस का मूल्यांकन बहुत जरूरी है. उन्होंने लॉन्ग टर्म इकोलॉजिकल मोनिटरिंग करने की आवश्यकता पर भी बल दिया. डा० निरंजन रॉय ने वन प्रबंधन हेतु वैज्ञानिक तथा स्थानीय ज्ञान को साथ ले कर कार्य करना चाहिए. उन्होंने प्रथागत कानून और सरकारी कानूनों के बीच अंतर को समझने पर बल दिया. उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों की मांग और आपूर्ति विषय पर भी कार्य करने का सुझाव दिया. डा० मंजूर ए शाह ने कहा कि वर्तमान में अतिक्रमणशील प्रजातियाँ एक बहुत बड़ी समस्या है अतः इन्ही प्रजातिओं का मूल्यवर्धन कर लाभ प्राप्त किया जा सकता है. उन्होंने हिमालय क्षेत्र में एक बोटैनिकल गार्डन की स्थापना का सुझाव दिया जिसमें हमारी प्रजातीय विविधता को संरक्षित करने के साथ उससे सम्बंधित तथ्य एवं कहानियां भी सम्मिलित हों।

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