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स्वास्तिक को आदिकाल से सनातन धर्म में बहुत महत्व प्राप्त है :-डाॅ.रवि नंदन मिश्र

देहरादून। स्वास्तिक एक ऐसा प्रतीक चिन्ह है जिसे आदिकाल से सनातन धर्म में बहुत महत्व प्राप्त है। हमारे हर त्यौहार और उत्सवों पर हम स्वास्तिर चिन्ह जरूर लगाते हैं। स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ ‘सत्ता’ या ‘अस्तित्व’ और ‘क’ का अर्थ ‘कर्त्ता’ या करने वाले से है। स्वास्तिक की इतनी महिमा है कि इसे कई देशों और धर्मों के लोग प्रयोग में लेते हैं। *पूजने के कुछ कारण :-* 1. अनादिकाल से ऋषि-महर्षि, शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान पूर्वाचार्य प्रत्येक कार्य का शुभारंभ ‘स्वस्ति’ वाचन से ही कराते चले आ रहे हैं। आज भी स्वस्तिवाचन से ही समस्त मांगलिक कार्य को शुरू किया जाता है। 2- स्वास्तिक चिह्न का सभी धर्मावलम्बी समान रूप से आदर करते हैं। बर्मा, चीन, कोरिया, अमेरिका, जर्मनी, जापान आदि अन्यान्य देशों में इसे सम्मान प्राप्त है। यह चिह्न र्जमन राष्ट्र ध्वज में भी सगौरव फहराता’ है। 3. पूजन हेतु थाली के मध्य में रोली के स्वास्तिक बनाकर अक्षत रखकर श्री गणेशजी का पूजन कराया जाता है। कलश में भी स्वास्तिक अंकित किया जाता है। भवन द्वार (चैखट) पर सतिया अंकित किया जाता है। जहां ऊँ, श्री, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ लिखा जाता है वहीं सतिया भी अपना विशेष स्थान रखता है। 4. बच्चे के जन्मोत्सव पर आचार्य से पूछकर सद्गृहस्थों में विदूषी महिलायें सतियो रखने के पश्चात ही गीतादि मांगलिक कार्यों को शुरु करती हैं। सतिया श्री, ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ, श्रीगणेश अनुपूरक सुखस्वरूप हैं। ऊँ श्री स्वस्तिक सकल, मंगल मूल अधार। ऋद्धि-सिद्धि शुभ लाभ हो, श्री गणेश सुखसार।। 5. ‘स्वस्तिक’ संस्कृत भाषा का अव्यय पद है। पाणिनी व्याकरण के अनुसार इसे व्याकरण कौमुदी में अव्यय के पदों में गिनाया जाता है यह ‘स्वस्तिक’ पद ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘अस्ति’ अव्यय (क्रम 61) के संयोग से बना है, यथा सु$अस्ति=स्वस्ति। इसमें ‘इकोयविच’ सूत्र के उकार के स्थान में वकार हुआ है। स्वस्ति में भी ‘अस्ति’ को अव्यय माना गया है और ‘स्वस्ति’ अव्यय पद का अर्थ कल्याण, मंगल, शुभ आदि के रूप में किया गया है जब ‘स्वस्ति’ अव्यय से स्वार्थ में ‘क’ प्रत्यय हो जाता है तब यही ‘स्वस्ति’ स्वस्तिक नाम पा जाता है। परंतु अर्थ में कोई भेद नहीं होता। सारांश यह है कि ‘ऊँ’ और ‘स्वस्तिक’ दोनों ही मंगल, क्षेत्र, कल्याण रूप, परमात्मा वाचक हैं। इनमें कोई संदेह नहीं। 6. ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदः। स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यों अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातुः।। महान यशस्वी प्रभु हमारा कल्याण करें, सबके पालक सर्वज्ञ प्रभु हमारा कल्याण करें। सबके प्रकाशक विघ्नविनाशक प्रभु हमारा कल्याण करें। सबका पिता ज्ञानप्रदाता प्रभु वेदज्ञान देकर हम सबका कल्याण करें। चारों वेदों में वर्णित उपरोक्त वेदमंत्र ऊँ स्वस्ति न इन्द्रो …. इसमें इन्द्र, वृद्धश्रवा, पूषा, विश्ववेदा, ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमि, बृहस्पति से मानव चराचर में व्याप्त प्राणियों के कल्याण की कामना की गई है। ध्यान दें: अंतरिक्ष में गतिशील ग्रहों के भ्रमणमार्ग पर जिसमें आने वाले अश्विनी, भरणी, कृतकादि नक्षत्र राशि समूह और असंख्य तारा पुंज हैं। 7. यह तो सर्वविदित है कि अपने सौर परिवार की नाभि में सूर्य स्थित है जिसके इर्द-गिर्द ‘नाक्षरन्ति नाम नक्षत्र’ नक्षत्र भी स्थित है। राशि चक्र के चैदहवें नक्षत्र चित्रा का स्वामी वृद्धश्रवा (इन्द्र) है। त्वष्टा ने सूर्य को खराद कर कम तेजयुक्त करके प्राणियों को जीवन दान दिया था। पू.षा. रेवती के स्वामी हैं, जो कि एक दूसरे के आमने-सामने हैं। इसी प्रकार उत्तराषाढ़ा 21 वां नक्षत्र होने से पुष्य के सम्मुख है। 8. अंतरिक्ष में बनने वाले इस प्राकृतिक चतुष्पाद चैराहे के केंद्र में सूर्य है। जिसकी चारों भुजायें परिक्रमा क्रम से फैली हुयी हैं। इस प्राकृतिक नक्षत्र रचना स्वस्तिक में आने वाले अनेक तारा समूहों के देवतागणों से भी मंगलकाममनाएं वेदों में की गई है। 9. स्वस्तिक मात्र कल्पना नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित समस्त सुखों का मूल ‘अक्षरांकज्योतिष’ के रचयिता डाॅ. गणेशदत्त जी के अनुसार सतिया में उपभुजायें लगाना अनुचित है लेकिन अन्यान्य विद्वान उपभुजायें बनाना उचित कहते हैं। स्वास्तिक चिह्न पर अभी खोज जारी है 10. स्वस्तिक पोषक अन्य वेद मंत्रों में विशद् वर्णन मिलता है। यथा – स्वस्ति मित्रावरूणा स्वस्ति पथ्ये रेवंति। *स्वस्तिन इन्द्रश्चग्निश्च स्वस्तिनो अदिते कृषि।।* इसमें भी मित्र का अर्थ अनुराधा से लिया गया है। इसी प्रकार पूर्वाषाढ़ा का स्वामी वरूण है। रेवती एवं ज्येष्ठा का इन्द्र, कृत्तिका, विशाखा अग्नि और पुनर्वसु नक्षत्र का स्वामी अदिति है। रेवती से आठवां पुनर्वसु। पुनर्वसु से आठवां चित्रा, चित्रा से सातवां पू.षा. और पू.षा. से आठवां रेवती है। अर्थात उपरोक्त ऋचा में रेवती गणना क्रम से आता है। स्वस्तिक के चिह्न से संबंधित अन्य ऋचायें वेदों में वर्णित हैं। देखें सतिया के मध्य में जो शून्य बिंदु रख दिये जाते हैं वे अनंत ब्रह्माण्ड में अन्य तारा समूहों का संकेत करते हैं। 11.स्वास्तिक का चिन्ह जर्मन फ़ौजियों की वर्दी के साथ हिटलर की वर्दी पर भी देखा जा सकता था। सनातन धर्म में स्वास्तिक सर्वप्रथम पूज्य गणेशजी का प्रतीक है। इसीलिए स्वास्तिक चिन्ह शुभता का प्रतीक है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।

*डाॅ.रवि नंदन मिश्र* *असी.प्रोफेसर एवं कार्यक्रम अधिकारी* *राष्ट्रीय सेवा योजना* ( *पं.रा.प्र.चौ.पी.जी.काॅलेज,वाराणसी*) *सदस्य- 1.अखिल भारतीय ब्राम्हण एकता परिषद, वाराणसी,* *2. भास्कर समिति,भोजपुर ,आरा* *3.अखंड शाकद्वीपीय एवं* *4. उत्तरप्रदेशअध्यक्ष – वीर ब्राह्मण महासंगठन,हरियाणा

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