दिल्ली

एक साथ चुनाव को लेकर लगातार अलग-अलग बैठकों का दौर

नई दिल्ली। लोकसभा और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर बड़े दलों में मतभेद जरूर हैं, लेकिन इसके पक्ष में राय बनाने की कवायद ठंडी नहीं हुई है। दरअसल उन्हें भी यह समझाने की कोशिश हो रही है कि इसे राजग सरकार का एजेंडा न मानें। ऐसी सिफारिशें विधि आयोग की ओर से भी होती रही और 1967 से पहले यही चलन भी रहा है। वक्त की मांग है कि टूटी हुई कड़ी को फिर से जोड़ा जाए। अगर सहमति बनती है तो संविधान के पांच अनुच्छेदों में संशोधन करना होगा और लोकसभा के कार्यकाल की तिथि निर्धारित करनी होगी।एक साथ चुनाव को लेकर लगातार अलग-अलग बैठकें हो रही हैं। कांग्रेस, वामदल, राकांपा, तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों ने इसे अस्वीकार कर दिया है। वह इसे अव्यवहारिक भी मानते हैं और उन्हें आशंका भी है कि कहीं इसके कारण विविधता न खत्म हो जाए। लोकसभा सचिवालय ने हाल ही में इस बाबत पूरी जानकारी सार्वजनिक की है। इसे एक साथ चुनाव को लेकर बड़ी चर्चा शुरू करने के एक माध्यम की तरह देखा जा रहा है।

इतिहास बताता है कि 1951-52 के बाद 1957, 1962 और 1967 में एक साथ ही चुनाव हुए। यह तारतम्य तब टूटा जब 1968 और 1969 कुछ राज्य विधानसभा भंग हुई और 1970 में लोकसभा भी समयपूर्व भंग हो गई। 1999 में जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग ने भी एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश दी थी। वर्ष 2015 में राज्यसभा ने विधि आयोग की सिफारिश की जांच करते हुए भी ऐसा ही सुझाव दिया था। एक विचार था कि आधे राज्यों के चुनाव 2019 लोकसभा चुनाव के साथ कराए जाएं और बाकी के राज्यों के चुनाव 2021 के अंत में कराए जाएं। वैसे एक साथ चुनाव की दशा में संविधान में पांच संशोधन करने होंगे। अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 को संशोधित करना होगा। अनुच्छेद 83 संसद के सदनों की अवधि से संबंधित है। फिलहाल अवधि संबंधित सदन की बैठक से निर्धारित होता है। इसे बदलकर एक तिथि तय करनी होगी। अनुच्छेद 85 में लोकसभा और विधानसभा के राष्ट्रपति और राज्यपाल के विघटन संबंधी अधिकार है। एक साथ चुनाव की स्थिति बनाने के लिए कई राज्यों के विधानभा का कार्यकाल बढ़ाना या घटाना होगा और इसके लिए अनुच्छेद 172 में संशोधन की आवश्यकता होगी। 174 में राज्यों की विधानसभा संबंधी विघटन के नियम है और 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान है।पर इस मोड़ तक पहुंचने से पहले सभी दलों और राज्यों की सहमति लेना दुरूह होगा। वहीं इतने बड़े स्तर पर चुनाव आयोग को व्यापक तैयारी करनी होगी जो आसान नहीं है। एक आकलन के अनुसार चुनाव आयोग को लगभग 28 लाख बैलेटिंग यूनिट और 24 लाख कंट्रोल यूनिट की जरूरत होगी। पूरी प्रक्रिया को सुचारू रखने के लिए लगभग 40 लाख चुनाव कर्मचारी की भी जरूरत होगी। जाहिर है कि एक साथ चुनाव को हरी झंडी देने से पूर्व हर स्तर पर कमर कसनी होगी।

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