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चित्त वृत्तियों का निरुद्ध होना ही योगः आशुतोष जी महाराज

देहरादून। बात मुक्ति की हो, आध्यात्मिक उन्नति की हो, आनंद की चिरंतन अनुभूति की हो, दुःख-विषाद के अहसास से ऊपर उठने की हो या फिर मनुष्य के सम्पूर्ण स्वास्थ्य की ही क्यों न होय ‘योग’ एक ऐसा छत्र है जिसमें ये सब लाभ समाए हुए हैं। यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) के अनुसार योग शरीर, मन व आत्मा के समन्वय पर आधारित एक ऐसी पद्धति है, जो शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उत्थान की कारक तो है ही, साथ ही सामाजिक विकास का भी अभिन्न अंग है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित किया गया कि हर वर्ष ‘21जून’ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाएगा।
आत्मा के परमात्मा से जुड़ने की बात की गई है। चार वेदों के चार महावाक्य, बौद्ध योग, वेदांत योग, जैन योग, सांख्य योग, ताओ योग, तिब्बती योग, चीनी योग, जापानी या जेन योग, महर्षि अरविंद द्वारा प्रतिपादित पूर्ण योग, योगानंद परमहंस द्वारा प्रतिपादित क्रिया योग इत्यादि इसी योग के विश्व व्यापक रूप हैं। महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन के द्वितीय श्लोक में ही योग को परिभाषित करते हुए लिखा- ‘योगः चित्त वृत्ति निरोधः’ अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरुद्ध (अर्थात् स्थिर) होना ही योग है। श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं योग को परिभाषित किया- जिस अवस्था में मनुष्य का चित्त परमात्मा में इस प्रकार स्थित हो जाता है जैसे वायुरहित स्थान में दीपक होता है, उस अवस्था को योग कहते हैं।
सारतः योग एक ऐसी अवस्था है, जिसमें चित्त का आत्मा में लय हो जाता है और तदनंतर आत्मा और परमात्मा का मिलन संभव होता है। अब प्रश्न उठता है कि चित्त की ऐसी अवस्था कैसे हो? और क्या आज भी यह संभव है? पातंजल योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने चित्त वृत्तियों के निरोध की एक विशिष्ट एवं विस्तृत योजना बताई। इसमें महर्षि पतंजलि ने समग्र योग को आठ अंगों में बाँट दिया, जिसे अष्टांग योगसूत्र का नाम दिया गया- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि योग के आठ अंग हैं।
संस्थापक एवं संचालक दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आशुतोष महाराज ने कहा कि योग के इन आठ अंगों को साधने से चित्त की वृत्तियों का समूल निरोध होता है। अष्टांग योग की यह यात्रा मनुष्य को स्थूल से सूक्ष्म जगत की ओर ले जाती है। उसकी वृत्तियों को बहिर्मुखी से अंतर्मुखी करते हुए स्थिरता की ओर यानी शून्य की ओर अग्रसर करती है। अष्टांग योग के पहले पाँच भाग बहिरंग योग और अंतिम तीन भाग अंतरंग योग कहलाते हैं। बहिरंग योग को बाहरी जगत में और अंतरंग योग को अंतर्जगत में साधा जाता है। चित्त शुद्धि के लिए शरीर (इन्द्रियों), मन तथा बुद्धि की शुद्धता अनिवार्य है। समाधि- अष्टांग योग की सर्वोच्च अवस्था है। योग की वह अवस्था जिसमें चित्त वृत्तियों का पूरी तरह निरोध हो जाए, वह समाधि है। आप भी इस अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता है एक पूर्ण गुरु के सानिध्य की। गुरु गीता में भगवान शिव वर्णित करते है कि जो चित्त का त्याग करने में प्रयत्नशील हैं… उन्हें आगे बढ़कर गुरु दीक्षा की विधि प्राप्त करनी चाहिए। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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