नई दिल्ली । राहुल गांधी आज औपचारिक रुप से कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बन जाएंगे. लेकिन राहुल गांधी का यहां तक का सफर इतना आसान नहीं भी था. भले ही उनको यह जिम्मेदारी इसलिए दी जा रही हो क्योंकि वह गांधी परिवार से हैं लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि राजनीति में आने से पहले ही उन्होंने बहुत कुछ झेला है. आज वो अपनी मां सोनिया गांधी की जगह लेंगे. जिन्होंने कल कहा था कि मैं रिटायर हो रही हूं. सोनिया गांधी ने मार्च 1998 में पार्टी को नियंत्रण में लिया था वो 19 साल अध्यक्ष रहीं. सोनिया गांधी के रिटायर होने के बयान पर कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी ने कहा है कि पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए ये स्वीकार करना आसान नहीं होगा कि सोनिया गांधी राजनीति छोड़ देंगी. राहुल की ताजपोशी के एक दिन बाद ही गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आएंगे जिसमें उन्होंने पूरा ज़ोर लगाया क्योंकि नतीजों को उनकी ताजपोशी से जोड़कर देखा जाएगा।
जब आतंकवाद में झुलसा था राहुल का बचपन
लेकिन असली सवाल ये है कि क्या राहुल कांग्रेस को वाकई नया रास्ता दिखा पाएंगे? राहुल के लिए ये मौक़ा भी है और चुनौती भी. हालांकि राजनीति की विडंबना को राहुल ने बिल्कुल बचपन से देखा है दिसंबर के पहले हफ़्ते देश की सबसे पुरानी पार्टी के शिखर पर बदलाव होने जा रहा है. कुछ लोग इसे कांग्रेस में वंशवाद के विस्तार के तौर पर देख रहे हैं तो कुछ लोग नए ख़ून, नई पीढ़ी के आने के तौर पर. लेकिन अगर राजनीति से हटकर अगर राहुल की एक शख्सियत को देखें तो 1984 का वो साल जब राहुल गांधी की उम्र 14 साल थी और उनकी दादी इंदिरा गांधी को उनके ही अंगरक्षकों ने गोली मार दी. ये भारतीय राजनीति में आतंकवाद का पहला बड़ा छींटा था. जिसका असर राहुल गांधी के बचपन पर भी पड़ा. प्रियंका, राहुल दोनों ही इंदिरा के काफी दुलारे थे।
21 साल की उम्र में पिता को दी थी आग
इसके बाद समय बीता..साल 1991 में वो राहुल की उम्र 21 साल हो गई थी. यह वह उम्र होती है जब भारत में पहली बार वोट देने का अधिकार मिलता है. राहुल ने इसी साल पिता की चिता को आग दी थी. एक जातीय उन्माद से उपजे प्रतिशोध ने उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की जान ले ली थी. इन दो घटनाओं के बरसों बाद पार्टी का उपाध्यक्ष बनाए जाते वक़्त राहुल गांधी ने अपनी दादी और अपने पिता दोनों को याद किया।
2004 से की थी राजनीति में शुरुआत
राहुल ने एक बार कहा, ‘मुझे बैडमिंटन खेलना पसंद था. इससे मुझे इस मुश्किल दुनिया में संतुलन मिलता था. मेरी दादी के घर में मुझे बैडमिंटन सिखाने वाले दो पुलिसवाले थे जो मेरी दादी की सुरक्षा में तैनात थे और मेरे दोस्त थे और एक दिन उन्होंने ही मेरी दादी को मार डाला और मेरे जीवन संतुलन छीन लिया’. 2004 में 34 साल की उम्र में पहली बार अमेठी से सांसद बने राहुल गांधी की राजनीतिक परवरिश के पीछे इन दो घटनाओं का बड़ा हाथ रहा. पिता के बाद राजनीति में आने को अनिच्छुक मां ने जब सात साल बाद पार्टी की कमान संभाली तब भी राहुल दूर रहे. 2004 के चुनावों में अटल-आडवाणी की दिग्गज मौजूदगी को मात देते हुए जब सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए ने केंद्र में सरकार बनाई तो फ़ैसले की घड़ी आई. लेकिन जिस प्रधानमंत्री पद के लिए बड़े-बड़े लालयित होते और अपने बुज़ुर्गों का तिरस्कार करते देखे गए, उसे सोनिया गांधी ने चुटकियों में ठुकरा दिया. यह बाद में पता चला कि इस फ़ैसले के पीछे राहुल और प्रियंका का भी दबाव था।
कलावती के जिक्र पर उड़ी थी खिल्ली
लेकिन शायद यह नेहरू-गांधी परिवार का वारिस होने की नियति थी जो अंततः राहुल को संसद के गलियारे में खींच लाई. इस विरासत ने राहुल गांधी को फायदे भी दिए और चुनौतियां भी. उन पर मीडिया की बहुत क़रीबी नज़र रही. लेकिन उनको सोच साफ थी कि हिंदुस्तान को समझना ही उनकी प्राथमिकताएं थी. जब संसद में उन्होंने कलावती का ज़िक्र किया तो उनकी बहुत खिल्ली उड़ी. लेकिन कलावती एक सच्चाई थी जो सामने भी आई और उसको अनदेखा करने की कोशिश भी बेमानी हुई. धीरे-धीरे राहुल गांधी ने देश और सियासत की समझ भी दिखाई. उन्होंने देश का भी दौरा किया और अपने मुद्दों की भी पहचान की. ट्रेनों से उनके दौरे चर्चा में रहे।
‘मनमोहन सिंह ही मेरे नेता हैं’
सोनिया गांधी की पहल और राहुल गांधी के समर्थन का ही नतीजा रहा कि यूपीए-1 के समय ऐसे ऐतिहासिक कानून पास हुए जिन्होंने सरकार और समाज के तौर-तरीकों में बड़े बदलाव पैदा किए. इनमें मनरेगा, यानी रोज़गार की गारंटी, सूचना का हक़, शिक्षा का हक़ और भूमि अधिग्रहण वो बड़े फ़ैसले रहे जिन्होंने कांग्रेस सरकार को गरीबों और किसानों के बीच लोकप्रियता दी. खाद्य सुरक्षा क़ानून भी पार्टी का एजेंडा रहा जो अधूरा रह गया. इन सबके बीच 2009 के चुनावों में लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना कर वापसी की उम्मीद कर रही बीजेपी फिर से हार गई. यूपीए को 2004 के मुक़ाबले ज़्यादा सीटें मिलीं ख़ुद कांग्रेस भी मज़बूत हुई. इस कामयाबी से ख़ुश कांग्रेस के भीतर अचानक राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग होती है. लेकिन यहां राहुल फिर शालीनता दिखाते हैं, कहते हैं, मनमोहन सिंह ही उनके नेता हैं।
भट्टा पारसौल था राहुल का पहला पड़ाव
राहुल गांधी इस दौरान अपने मुद्दे भी खोजते रहे. यूपी में ज़मीन क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ जब अलीगढ़ से भट्टा परसौल तक किसानों का आंदोलन गरमाया हुआ था और राज्य सरकार ने नेताओं के वहां जाने पर रोक लगा दी थी तो राहुल गांधी ने मोटरसाइकिल से वहां पहुंच कर सबको चौंका दिया. किसानों के पक्ष में जो जमीन अधिग्रहण बिल पास हुआ, जाहिर है, उसमें राहुल गांधी का समर्थन भी था. इसी तरह नियामगिरि में आदिवासियों ने जब वेदांता के प्रोजेक्ट को नामंजूर कर दिया तो राहुल ने उनकी पीठ थपथपाई- वो पहले ही कह चुके थे कि वो उनके सिपाही हैं. 2010 में मिर्चपुर में जब दबंगों ने एक बाप-बेटी को ज़िंदा जला दिया और 18 घर फूंक दिए तो राहुल वहां भी पहुंचे. उन्होंने अपनी ही राज्य सरकार के ख़िलाफ़ सख़्त बयान दिए और राज्य के सारे दलित विधायकों-सांसदों को तलब कर पक्का किया कि इन लोगों को इंसाफ़ मिले. लेकिन कहानी इस बीच चुपचाप बदलती रही।
जब भ्रष्टाचार के आरोप और अन्ना आंदोलन की तपिश
यूपीए पर लग रहे आरोपों का बोझ राहुल पर भी भारी पड़ता नज़र आया. कॉमनवेल्थ खेलों, टू जी या कोल ब्लॉक में भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोपों की कालिख ने अचानक सरकार की चमक कम कर दी. इसी समय जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर चला अन्ना का आंदोलन देश में कई जंतर-मंतर बना देता है.भ्रष्टाचार के खिलाफ हवा बनती दिखाई पड़ती है जिसके निशाने पर सीधे केंद्र सरकार थी. 2012 में नरेंद्र मोदी तीसरी बार गुजरात जीतते हैं और आर्थिक विकास का गुजरात मॉडल भ्रष्टाचार के आंदोलन में सुलग रहे पूरे देश को अचानक मोदी की ओर देखने को मजबूर करता है।
जब सत्ता को बताया था जहर
इन सबके बीच लगातार अलोकप्रिय हो रही कांग्रेस के भीतर राहुल की ज़िम्मेदारी बड़ी होती जाती है. साल 2013 में वो पार्टी के उपाध्यक्ष बनाए जाते हैं. इस दिन राहुल अपनी मां सोनिया गांधी की बात को याद करते हुए कहते हैं कि मां ने कहा था, सत्ता ज़हर है.राहुल ने कहा, ‘बीती रात मेरी मां मेरे कमरे में आकर बैठी और वो रो रही थी. वो क्यों रो रही थी? वो रो रही थी क्योंकि वो समझती है कि जो सत्ता बहुत सारे लोग चाहते हैं, वो असल में ज़हर है. ये वो समय था जब देश में 2014 के संसदीय चुनावों की तैयारी हो रही थी।
बीजेपी नरेंद्र मोदी को ही पीएम पद का उम्मीदवार बनाने का फैसला कर चुकी थी. लेकिन राहुल गांधी की छवि कभी अनिच्छुक योद्धा तो कभी झुंझलाहट में अहंकारी नेता की बनती जा रही थी. 2013 में दाग़ी नेताओं के बचाव में अपनी ही सरकार के अध्यादेश को वे शर्मनाक बताते हुए फाड़ देते हैं तो पूरी यूपीए सरकार सकते में आ जाती है. यही वो दौर था जब सोशल मीडिया पर राहुल के खिलाफ दुष्प्रचार चरम पर था. उन्हें नासमझ साबित करने की कोशिश हो रही थी. 2014 के चुनावी नतीजों में कांग्रेस को 44 सीटें मिलती हैं और राहुल बड़ी शालीनता से इस हार की जवाबदेही स्वीकार करते हैं. अब राहुल को यहीं से शुरुआत करनी है।